जी हाँ। हैरत ही होगी। अब तक आपने मुम्बई की उपनगरीय गाड़ियोंकी भीड़ देखी थी, यह हमारे उत्तर भारत के गाँवोंके तरफ की भीड़ है।
हम लोगोंकी दिक्कत यह है, रोजगार पर जाने के लिए गाड़ी चाहिए। हम प्रशासन से लक्जरी नही माँग रहे, न ही कोई विशेष व्यवस्था। लेकिन रोजाना छोटे छोटे गावोंके स्टेशनोंसे जो मजदूर, कर्मचारी, विद्यार्थि शाहरोंकी ओर चलते है और शाम में लौटते है, जरा उनके हाल तो देखिए। कहीं रोटी के चक्कर मे जिंदगी न छूट जाए।
“चाहे आप बुलेट ट्रेनवाँ चलाई ले, उ राजधानियां, शताब्दियाँ चलवा लीजिए बाबुसाब, पर हमरा रोज का टुकटुकिया ना बन्द करी” यह हमारे गांव के श्रमिकोंकी माँग है। आए दिन ख़बरोंमें पढा जा रहा है, सवारी गाड़ियोंको एक्सप्रेस बनाया जाएगा। स्टापेजेस हटा दिए जाएंगे। “दो सौ का पास बनाई के रोज सहर जात रहे, दिनभर खड़े रहे, तब जाकर दो जून रोटी मिलत है बाबूजी। इब गाड़ी नाही चलिबे तो हम हु सहर कैसन जाई? बस, टेम्पो से तो का उसे किराया देई और का हम खाई?”
ऐसे ऐसे सवाल, हमारे विकास की तो बोलती ही बन्द हो गयी। इनकी जरूरतें हमारी सोच से कई अलग है। कहाँ हम इनसे हाई स्पीड, नॉन स्टॉप सुपरफास्ट गाड़ियाँ और पाँच तारा, स्टार क़्वालिटी की भोजन व्यवस्था, हाइजेनिक बेड रोल की बातें करें? इनको तो बस गांव और शहर के बीच जानेआने के लिए भले दो पग धरे जाए इतनी ही जगह वाली गाड़ी जिसे वह टुकटुकिया कहते है मिल जाए तो बहोत है।