“151 निजी रेलगाड़ियाँ, 50 रेलवे स्टेशन भी होंगे निजी, जबलपुर स्टेशन बिकेगा 75 करोड़ रुपयोंमें” ऐसी खबरें पढ़, सुन आप हैरान हो गए होंगे। अब तक हमने पढा, सुना औऱ समझा की रेलवे, राष्ट्रीय सम्पत्ति है, इसे साफ सुथरा रखे। क्या सचमुच अब यह किसी ओर की हो जाएगी?
लगता तो कुछ ऐसा ही है, क्योंकी इन शब्दोंके मायने यही है। बिकी नहीं है, लीज पर दी गयी है। बिल्ट ऑपरेट एन्ड ट्रांसफर। ट्रेनें खाली 151 जोड़ी ही है, बाकी तो सब चलती रहेंगी न। एअरपोर्ट नही हुए निजी? तो वैसे ही रेलवे स्टेशन क्यों नही हो सकते?
मेरे भाई, रेलवे स्टेशनोंमें में और एअरपोर्ट में फर्क है, जमीन आसमान वाला फर्क। कई भारतीय अपने जीवन मे कभी एअरपोर्ट पर गए होंगे और कैयौने तो इसे चित्र में भी शायद ही देखा होगा। लेकिन रेलवे भारतियोंके दिलोंदिमाग में बसती है। देश की सबसे बड़ी, सबसे आरामदायक, सबसे किफायती और कोनेकोने पहुंच रखनेवाली हमारी नैशनल कैरियर रेल। आज भी हमारे देश मे आरक्षित वर्ग के डिब्बों में भी “एडजस्ट” होकर चलते रहने का रिवाज है। सैकड़ोंके डिब्बों में हजारों को यात्रा करते हम हमेशा ही देखते आए है। शादियोंकी बारातें, विभिन्न धर्मियोंके जुलूस, अनेकों नेताओंके प्रदर्शन रेलवे प्लेटफार्म से चलकर अपनी मंजिलोको तय करते है।
“गाड़ी आपके गांवसे खाने के समय पर गुजरने वाली है, टिफिन लेते आइयो स्टेशनपर” पता नही, इन निजी स्टेशनोंके दौर में यह हमारा भारतीय अपनापन भी रह पाएगा या नही। क्योंकी स्टेशन्स भी निजी होने जा रहे। इनके मालिक लोग अपने रेस्टोरेंट, अपनी होटलें, अपनी सिक्युरिटी सारी व्यवस्थाएं चाकचौबंद रखे रहेंगे। हवाई अड्डे के भाँति रेलवे स्टेशन के बाहर के अहाते में अपनी माँ, मामी, चाची, दादी को छोड़ दो, वह अपने आप गाड़ी में चढ़ जाएंगे, या लेने आए है तो जब बाहर आएंगे तब सम्भाल लेना। यह रिवाज हो जाएगा आवभगत का। बदल रहा है न सबकुछ?
कहा जाता है, इन निजी व्यवस्थाओंसे रोजगार का सृजन होगा। पता है, निजी गाड़ियोंमे रेलवे के कर्मचारियोंके नाम पर सिर्फ ड्राईवर और गार्ड होंगे। बाकी गाडीका चेकिंग स्टाफ़, मैनेजर, हाउसकीपिंग, सिक्युरिटी सारे निजी कम्पनियोंकी भर्ती होगी। हाल ही में जो गिनीचुनी निजी गाड़ियाँ चल रही है, उसकी हाउसकीपिंग एम्प्लोयी को नौकरी से हाथ धोना पड़ा कारण उसका मेकअप ठीक नही था, और आगे सुनिए, इन लोगोंको तनख्वाह कितनी मिलती है, महीने की 15 से 20 हजार। काम करने की अवधि होती है 15 से 18 घंटे। क्या करेंगे इस तरह के रोजगार सृजन का?
एक तरफ कहा जाता है, लीज पर स्टेशन देने से सरकार को इतने रुपए मिलेंगे, इतने खर्चे बचेंगे, निजी ट्रेनें चलाने से इतनी सीटे बढ़ेगी, उच्चस्तरीय सुविधाएं मिलेंगी। भाईसाहब उच्चस्तरीय सुविधाएं?, अजी सुविधा किस चिड़िया का नाम है? कभी गर्मी के दिनोंमें रेलवे से मुम्बई की ओरसे उत्तर भारत की ओर जानेवाली गाड़ियोंमे सफर किए हो? यात्रा करने की बात ही छोड़िए, टिकट ही ले कर दिखाए तो मालूम पड़ जाएगा घर मे बैठे रहने से ज्यादा सुविधाजनक कुछ नही होता। बात करते है उच्चस्तर की।
हायर क्लास याने उच्च वर्ग लोगोंकी बात करते होंगे तो उनके लिए वातानुकूलित वर्ग रहता है, लगभग सभी गाड़ियोंमे। देशकी 60,70% आबादी तो आजभी अपनी सोच बड़ी मुश्किल से सेकन्ड क्लास से स्लिपर क्लास और हद हो गई तो AC 3 टियर तक पोहोंची है। आज भी रेलवे में आर्डर देकर खाना खानेसे हिचकिचाते लोग अपने घर से पूड़ी सब्जी खाने ने ज्यादा आनंद पाते है। जितने लोग आरक्षित बर्थोंपर लेटे हुए रहते है, उससे कई ज्यादा उन बर्थोंके अगलबगल टिक कर अपनी यात्रा सफल सुफल कर लेते है और कइयोंको तो दरवाजोंके सामने, टॉयलेट के बगलवाली जगहोंपर बैठ कर मुम्बई से वाराणसी, छपरा, दरभंगा तक जाते देखा जा सकता है।
हमारे जुम्मनचच्चा कहते है, रेल प्रशासन अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव ही न करें ऐसा हमने कब कहा है? यह सब इंतजामात तो वह खुद भी कर सकती है। जब यह सारी व्यवस्थाएं ज्यादा दाम चुकानेवालोंके लिए किए जा रहे हो तो उन्ही से पैसा वसूल करो और “एसी वेसी” की सुविधाएं भी उन्ही के लिए करो, हमारे जैसी आम जनता के लिए बस जरूरत के समय हमारी सादे डिब्बों वाली गाड़ियाँ ही बढ़ा दिया करो। भाई सो कर नहीं कमसकम सुख से बैठ कर चले जाए इसका इंतजाम ही कर दिया करो, हैँ?
अब क्या कहे, जुम्मन चच्चा और लछमन काका जैसे लोगोंसे? बस आप दूर ही रहिए इन चिजोंसे, निजी गाड़ियोंसे, निजी बनने वाले स्टेशनोंसे। फिलहाल तो हमरी कासी, पवन, कुसिनगर तो बन्द नही न भइल? तो चली, हमहू उसी निकल जात रहें हमरे गाँव। जय राम जी की।