2020 यह वर्ष हर किसी को, किसी न किसी मायनोंमें याद रहेगा। महामारी के इस वर्ष ने किसी को, अपने के बिछड़ने का दर्द दिया है तो किसी का रोजगार छीना है। रेलवे का चक्का बन्द तो अब इतिहास के पन्नों का एक स्थायी अध्याय है। इस अध्याय में कैसे रेलवे ठप्प रही, कामगारों का गाँव की तरफ पैदल ही निकल पड़ना, रेलवे की इन लोगोंके लिए अपने कर्मचारियोंके साथ, सेवा की नैतिक जिम्मेदारी का एहसास रखते हुए, श्रमिक गाड़ियोंका संचालन किया, रास्तेमें श्रमिकोंके खानपान की व्यवस्था करना, किसी को शायद ही भुलाए देगा।
इस वर्ष, रेल परिवहन में ही क्या, देश के हरेक सामाजिक जीवन मे भारी उथलपुथल रही। रेलवे स्टेशनोंमें, आनेजाने पर पाबन्दियाँ लग गयी। महामारी के पहले रेल प्रशासन ने गाड़ियोंमे यात्रिओंकी प्रतिक्षासूची पूर्णतयः समाप्त कीये जाने की योजना का ख़ाका तैयार होने की घोषणा की थी लेकिन हाय रे दुर्भाग्य! प्रतिक्षासूची के यात्री की तो यात्रा कीए जाने की उम्मीद ही धरी रह गयी। पहले तो गाड़ियाँ ही बन्द रही, और शुरू हुई तो आज भी केवल आरक्षित यात्रिओंके लिए ही चल रही है।
द्वितीय श्रेणी टिकट की खिड़कियोंके पट ऐसे बन्द हुए की खुलने का नाम ही नही ले रहे है और ना ही आसपास के दिनोंमें इनके खुलने के कोई आसार दिखाई दे रहे है। मासिक/ त्रिमासिक पास धारकोंके पास निकले पड़े है, लेकिन पता नही गाड़ियोंमे यह वैध कब होंगे? यह लोग बेचारे सड़क मार्ग के धक्के खा रहे है। यह कष्ट केवल शारारिक नही, अपितु मानसिक और आर्थिक भी है। जितना ज्यादा लॉक डाउन ने आमजन को हलकान किया है, उतना ही हैरान रेलवे के इस निर्बंधवाले अनलॉक ने रेल यात्रिओंको किया है। आज भी स्थानिक रेल यात्रिओंको सवारी गाड़ियोंका, द्वितीय श्रेणी टिकटोंका और सीजन पास की वैधता के “अनलॉक” किए जाने का इंतजार है।
झीरो बेस, शून्याधारित समयसारणी के नाम पर रेलवे की ओरसे जो कवायदें चलाई जा रही है, उससे आम यात्रिओंको यह समझ ही नही आ रहा की कौनसी रेल गाड़ियाँ नियमित है, कौनसी त्यौहार विशेष? वैसे हमारे देश मे पूरे वर्षभर त्यौहार चलते ही रहते है, तो क्या रेलवे अपनी आधी से ज्यादा गाड़ियाँ इसी तरह त्यौहार त्यौहार करते चलाने वाली है? दिक्कत यहाँतक ही नही है, इनका किराया नियमित किरायोंसे कई ज्यादा है। हर महीने इनको सीमित रूपसे विस्तारित किया जाता है, अग्रिम आरक्षण का समय नही मिल पाता, कभी भी किसी भी गाड़ी का समय, टर्मिनल्स, मार्ग, स्टापेजेस अत्यंत अल्प अवधि की सूचनाओंपर बदले जा रहे है। यात्रिओंमें इस झीरो बेस टाइमिंग्ज की सूचनाएं अब बेस लैस टाइमिंग्ज के नाम से प्रचलित हो रही है।
इस महामारी का वर्ष और उसके हादसोंको भुलाकर रेल यात्री, प्रशासन से वही अपनी वर्षोंसे लम्बित आशाओं और अपेक्षाओंकी पूर्ति में प्रतीक्षारत है। आज भी उपनगरीय गाड़ियोंका यात्री बैठने की छोड़िए सुरक्षित खड़े होकर ही मिल जाए ऐसी यात्रा कीए जाने की अपेक्षा कर रहा है। छोटे छोटे स्टेशन नई कनेक्टिविटी की आशा छोड़ अपनी पुरानी गाड़ियोंके स्टापेजेस बचे रहे इसकी अपेक्षा कर रहे है, बड़े बड़े जंक्शन बाइपास ट्रैक, नए सैटेलाइट टर्मिनल्स के चलते कई गाड़ियाँ खोते चले जा रहे है, कन्जेशन का यह उपचार बड़ा ही भयंकर है। क्या जंक्शनोंपर, गाड़ियोंके कन्जेशन, भीड़, जमावड़े का उपाय इस तरह से करना ठीक है?
प्रश्न कई है, उपाय अनुत्तरित है। रेलवे हम भारतीयों के तन मन में रची बसी है, हमारी यातायात का प्रमुख साधन है। प्रशासन उसे चाहे किसी तरह चलाए, लोग उसमे ढलने, निभाने का प्रयास करते ही रहते है। रेलवे अपनी गाड़ियोंको नियमित करके चलाए, विशेष करके चलाए या त्यौहार विशेष कर चलाए, यात्री जाने के सदा ही तैयार है। आगे निजी गाड़ियाँ आनेवाली है, पूर्णतयः वातानुकूलित गाड़ियोंकी भी खबरें सुनने में है। यात्री कहता है, हम तैयार है। यात्री यह ट्वेन्टी ट्वेंटी वाला वर्ष खेल और झेल चुका है और आने वाले 2030 के नैशनल रेल प्लान तक के लिए भी मानसिकता बना चुका है। आशाएं, अपेक्षाएं तो चलती ही रहेगी।