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माँगे तो अनगिनत, मगर प्रभावी सुझावों की कमी!

रेलवे के लिए शायद ही कोई ऐसा पल होता होगा, जिसमे किसी यात्री या संघठन की कोई माँग न होती हो। स्टापेजेस से लेकर नई गाड़ियोंके लिए एक से बढ़कर एक माँग तैयार ही रहती है। कई यात्री संगठन तो रेल गाड़ी के मार्ग परिवर्तन, एक्सटेंशन के लिए आन्दोलनोंकी हद तक उत्साहित रहते है। क्या अपनी मांगों, जरूरतोंसे इतर जाकर रेलवे की उत्पादकता बढ़े ऐसा सुझाव कहीं नजर क्यों नही आता?

रेल प्रशासन जब भी किसी गाड़ी में स्टापेजेस बढ़ाती/घटाती है तो उसके पीछे खर्च का कारण बताती है, जो की कुछ लाख रुपयोंमें होता है। यात्री ठहराव का मतलब उक्त स्टेशनपर यात्री सुविधा, रखरखाव, उसके लिए संसाधन, कर्मचारी आदी मूलभूत सुविधाओंका भी विस्तार का विचार करना होता है। यही बात नई गाड़ी शुरू करना या गाड़ी को विस्तारित करने के बाबत में भी लागू होता है। गाड़ी बढाना, स्टापेजेस बढाना केवल इतना मात्र नही होता, आगे उनके परिचालन विभाग के कर्मियोंके, जैसे लोको पायलट, गार्ड, स्टेशनकर्मी, मेंटेनेंस स्टाफ़ आदि के व्यवस्थापन का भी यथायोग्य नियोजन करना होता है। यह सारी चीजें उस खर्च में सम्मिलित होती है।

आजकल रेल प्रशासन झीरो टाइमटेबल पर काम कर रही है। इसमें कई स्टापेजेस छोड़े जाने का नियोजन है। यह व्यवस्था गाड़ियोंकी न सिर्फ गति बढ़ाएगी बल्कि रेल व्यवस्थापन के खर्च में कमी भी ले आएगी। इसके बदले में रेलवे उक्त स्टेशनोंका अभ्यास कर, माँगोंके अनुसार मेमू गाड़ियाँ चलाने की व्यवस्था करने की सोच रही है। मेमू गाड़ियाँ ग़ैरउपनगरिय क्षेत्रोंमें चलाई जानेवाली उपनगरीय गाड़ियोंके समान होती है। जिनका पीकअप स्पीड ज्यादा होता है और रखरखाव कम। छोटे अन्तरोंमें यह गाड़ियाँ बेहद उपयुक्त साबित होती है। फिलहाल इनके ट्रेनसेट कम है और जरूरत के हिसाब से तेजी से उत्पादन बढाया जा रहा है।

रेल प्रशासन ने हाल ही बजट में संसाधनोपर 95 प्रतिशत से ज्यादा का निर्धारण किया है। इसमें समर्पित मालगाड़ियोंके गलियारोंके लिए बड़ा प्रस्ताव है, साथ ही व्यस्ततम मार्गोंका तीसरी, चौथी लाइन का निर्माण भी सम्मिलित है। यह प्रस्तवित संसाधन जब हकीकत के धरातल पर कार्य शुरू कर देंगे तब ग़ैरउपनगरिय मेमू गाड़ियोंके लिए जगह ही जगह उपलब्ध हो जाएगी। मुख्य मार्ग की लम्बी दूरी की गाड़ियाँ सीधी चलाने में कोई बाधा या रुकावट नही रहेगी और यात्रिओंकी माँग की भी यथोचित पूर्तता की जा सकेगी। आज यह सारी बाते स्वप्नवत है, लेकिन जिस तरह कार्य चलाया जा रहा है, तस्वीरें जल्द ही बदलने वाली है।

यात्रिओंको यह समझना चाहिए, स्टेशनोंके व्यवस्थापन का निजीकरण कर के यात्री सुविधाओंको कितना उन्नत बनाया जा रहा है। किसी जमाने मे बड़े से बड़े जंक्शनपर लिफ्ट, एस्कलेटर, बैट्रिचलित गाड़ियोंकी बात तो छोड़िए रैम्प तक नही होते थे, जो आज लगभग हर मेल/एक्सप्रेस के ठहराव वाले स्टेशनोंपर मिल रहे है। गाड़ियोंके द्वितीय श्रेणी के डिब्बों तक मे मोबाईल चार्जिंग पॉइंट दिए जा रहे है। स्टेशन साफसुथरे, सुन्दर और आकर्षक हो रहे है। क्या यह व्यापक बदलाव नही है?

सिर्फ गाड़ियोंके स्टापेजेस बढाना, विस्तार करना, नई गाड़ियोंके प्रस्ताव रखना इसके अलावा भी रेलवे को सुझाव की आवश्यकता है, जिनसे उसकी उत्पादकता बढ़े। रेलवे पार्सल ऑफिस को जनोपयोगी, ग्राहकोंपयोगी बनाना, पार्सल कर्मियोंकी निपुणता बढाना ताकी वह ग्राहक को यथयोग्य उत्तर दे सके। रेलवे बहोत सारे काम ऑनलाईन जर रही है। ऐसे में मैन्युयल काम को घटाकर भी अपनी उत्पादकता बढ़ाने में सहायता मिल रही है।

आखिर में, हमारा देश इतना बड़ा और जनसंख्या इतनी अधिक है, की कोई भी ट्रेन बढ़े या स्टापेजेस बढ़े वहाँपर ट्रैफिक तो मिलनी ही है। खैर जनसंख्या ज्यादा होना इसको हम कमी नही, हमारे देश का बलस्थान मानते है और रेलवे भी उसी सोचपर अपनी कार्यशैली को आगे बढ़ाती है। जरूरत एक बेहतर सोच की है, सेवा का बेहतर मूल्य चुकाने की है।

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