हमारे देश मे आजकल एक अलग विचारधारा चलाई जाती है। एक तरफ बरसों पुराने या यूं कह सकते है की सदियों पुराने गन्दे से माहौल से रेलवे स्टेशन, रेल गाड़ियाँ, कुछ कर्मचारियोंकी अकर्मण्यता को ढर्रे पर ला कर एक नए साफ-सुथरे, सुन्दर लोकोपयोगी वातावरण में ले जाया जा रहा है तो दूसरी तरफ आम यात्रिओंको अज्ञानता भरी बातें कह कर बरगलाया जा रहा है।
आप बिलकुल सहजता से आजसे 8-10 वर्ष पहले के रेलवे स्टेशनों, गाड़ियों और उनकी सुविधाओंमें आया फर्क समझ सकते है। भुसावल यह मध्य रेलवे का मण्डल है, बहुत बड़ा जंक्शन है। एक जमाना था, हम लोग उम्रदराज यात्रियों और दिव्यंगों के लिए रैम्प की मांग करते रहते थे और रेलवे की ओरसे जवाब तक नही आता था। अधिकारी वर्ग में इस रैम्प के मांग की हँसी उड़ाई जाती थी। आज वहीं अधिकारियोंके पद है और तमाम भारतभर में न सिर्फ भुसावल बल्कि लगभग हर जंक्शन स्टेशन जहाँपर यात्री संख्या ज्यादा है, रैम्प बनाए गए है और बनाए जा रहे है।
रेम्प की क्या बात है, कई ऐसे रेलवे स्टेशन है की वहांके स्थानीय यात्रिओंने अपनी जिंदगी शायद पहली बार किसी एस्कलेटर पर कदम धरा हो, या भारतीय रेलवे स्टेशनोंपर 1 या 2 नही 4-4 लिफ्ट लगाए जाने का सपना देखा हो, मगर यह अब हकीकत है। एक वक्त था, स्टेशनोंपर कूड़ा-कचरा फेंकने के लिए कूड़ादान भी ढूंढने पड़ते थे वहाँ अब कचरे का नामोनिशान तक नही रहता।
जो इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल डिस्प्ले केवल मुम्बई जैसे महानगरों के रेलवे स्टेशनोंकी शोभा हुवा करते थे, वो आज सभी भारतीय रेलवे स्टेशनोंके बड़े, मझौले स्टेशनोंपर यात्रिओंकी सेवा के लिए लगाए गए है। रेलवे स्टेशन की हालात इस कदर सुधारी गई है कि पहले प्लेटफार्म पर गाड़ी पहुंचती थी तो मख्खियों के झुंड उठते थे, प्लेटफार्म के बगल की पटरियों पर भयावह गन्द रहती थी। उसकी जगह आकर्षक, साफसुथरे, चकाचक ग्रेनाइट कोटा स्टोन से सजे प्लेटफार्म दिखते है।
रेलगाड़ियाँ भी दिन ब दिन आधुनिक LHB कोच से सुसज्जित की जा रही है। गाड़ियोंकी गति में सुधार किया जा रहा है। प्रदूषण बढाने वाले डीजल लोको को धीरे धीरे कम कर सम्पूर्ण विद्युतीकरण की ओर भारतीय रेल को ले जाया जा रहा है। कई रेलवे स्टेशनोंपर सोलर विद्युतीकरण से कामकाज किया जा रहा है। रेल प्रोजेक्ट्स अब सिर्फ घोषणाएं ही नही रह जाती बल्कि उनको धरातल पर लाने की छटपटाहट बड़ी आसानी से समझ आती है।
यह सारी बाते हम इस लिए कह पा रहे है, क्योंकि हमने वह रेलवे स्टेशनोंके दृश्य भी जिए है और आज के आधुनिक सुविधाओंसे भरपूर व्यवस्थाओके भी लाभ लिए जा रहे है। जब हमारे दिव्यांग या बुजुर्ग यात्री बन्धुओंको बैटरी चलित गाड़ियोंसे रैम्प के जरिए ठेठ प्लेटफार्म पर गाडीके डिब्बे के पास उतरते देखते है तो सचमुच सार्थकता महसूस करते है। ऐसा लगता है, यह है सार्वजनिक व्यवस्थाओं में सुधार।
प्रोजेक्ट्स घोषित होते है और मशीनरी धड़क जाती है, काम शुरू हो जाते है। नजरों के सामने ही धड़ाधड़ विद्युतीकरण, एक लाइन की दो और दो की तीन रेल लाइन बढ़ती जा रही है। गाड़ियाँ 130 kmph की स्पीड दिखा रही है। रेलवे स्टेशनोंपर तारांकित होटल्स बनाए जा रहे है। रेलवे की टिकटें आजकल स्कूली बच्चे अपने मोबाइल पर यूँ बना देते है। है ना बदलाव?
मगर दोस्तों, हम तो पहले भी स्टेशनोंपर जाते थे, सामान ज्यादा होता या बुजुर्ग, दिव्यांग यात्री साथ रहते तो कुली उनको उठाकर प्लेटफार्म पार कराते। गाड़ियाँ आने पर अपने डिब्बों को ढूंढने भागदौड़ कर लेते। गन्दगी, कूड़ा करटक सार्वजनिक जगहोंपर देखना आदतन था। तो बताइए क्या वह सब ठीक था? इतना सुधार, सुविधाएं जिन्हें हम एक सपने की तरह देखते थे, हमारे नजरोंके सामने है जिनपर हम कुछ सुनते ही नही और ऐसी आधीअधुरी अज्ञानतापूर्ण बातें सुनकर अपने विचारों को खराब करते है।
जितनी भी PPP या निजीकरण की योजनाएं है उनका विस्तृत ब्यौरा रेलवे की वेबसाइटों पर उपलब्ध होता है, जिन्हें आप देखकर समझ सकते है की बेचना क्या होता है और किराएपर, लीज पे देना क्या होता है।