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भारतीय रेलवे की आरक्षित टिकिट, एक तुलनात्मक चर्चा

भारतीय रेल की टिकट आरक्षण प्रणाली में दो तरह से टिकट निकाले जा सकते है। पहला है, आरक्षण केंद्र पर जाकर PRS छपा हुवा टिकट और दूसरा है ई- टिकट। वैसे आई- टिकट भी है जो बुक तो इंटरनेट से होता है मगर छापकर आपके घर पोहोचाया जाता है। आज हम ई-टिकट और PRS टिकट की बात करते है।

बहुत से यात्री ई-टिकट के बारे में जानते है, समझते है इसके बावजूद PRS टिकट को ही प्राधान्य देते है। ई-टिकट यात्री के लिए बहुत सुविधाजनक है। इस टिकट को वह अपने घर बैठे या मोबाईल ऍप के जरिए चलते फिरते चाहे किसी जगह हो तुरन्त ही खरीद सकता है। बशर्ते उसके पास इलेक्ट्रॉनिक संचार व्यवस्था हो, डिजिटल पेमेन्ट की सुविधा हो। वही PRS टिकट के लिए यात्री को आरक्षण केंद्र पर जाना होता है, आरक्षण फॉर्म भरना पड़ता है, टिकट का मूल्य चाहे नगद या डिजिटल में चुकाकर एक छपा टिकट प्राप्त करना होता है। यही पद्धति टिकट को रद्द करना हो तो अपनानी पड़ती है, चाहे आपका टिकट कन्फर्म हो या वेटिंग लिस्ट। ई-टिकट में वेटिंग लिस्ट टिकट, चार्टिंग होने के बाद भी वेटिंग रह जाए तो अपने आप रद्द हो जाते है। टिकट में बदलाव करना हो, जैसे बोर्डिंग चेंज या पार्शल कैन्सलिंग तो घर बैठे ही किए जा सकते है, वही PRS टिकट के किसी भी बदलाव के लिए आरक्षण केंद्र की दौड़ लगानी पड़ती है। ई-टिकट में आईआरसीटीसी और बैंक का सेवा शुल्क अतिरिक्त लगता है। शायद यह भी एक वजह है, की बहुत से यात्री PRS टिकट खरीदते है।

हमारे एक मित्र है, जो अक्सर PRS टिकट ही खरीदकर रेल यात्रा करते रहते है। हमने उनसे ई-टिकट के प्रति अनास्था का कारण पूछा तो उन्होंने एक बड़ा मजेदार उत्तर दिया। छपा टिकट हाथमे हो तभी रेल यात्रा का फील आता है। जो ई-टिकट हो तो ऐसा लगता है, कहीं WT (बीना टिकट) तो यात्रा नही न कर रहे? खैर। चर्चा जब अलग अलग व्यक्तियोँ से की गई तो अन्दर की बात कुछ और भी होती है यह समझ आया। एक व्यवसायी ने कहा, कैश में टिकट लिए तो अकाउंट का, आइडेंटिटी का झंझट नही।

किसी किसी यात्री को ई-टिकट निकालना यही बहुत बड़ी समस्या लगती है। जितना समय PRS केंद्र पर जाकर टिकट निकालने में लगता है, उससे कई ज्यादा समय ई-टिकट के एंट्रीज में लगता है। खास तो वह उनका ‘कैप्चा’ यह कितनी ही बार फीड करें तो भी वह इनवैलिड ही बताता है। पेमेन्ट में अलग परेशानी। वहां पेमेन्ट जमा हो जाती है, और टिकट ही नही बनती। ऐसा दो-तीन बार हो जाए तो या तो बुकिंग्ज फूल हहो कर ‘नॉट अवेलेबल’ की तख्ती सामने आ जाती है। न घर के न घाट के। टिकट भी गया और पैसा भी। रिफण्ड आएगा 3-4 दिन में।

ओनवर्ड जर्नी या कनेक्टिंग जर्नी यह ई-टिकट में एक और बड़ा झमेला है। समझिए आपके गन्तव्य के लिए आपके स्टेशन से सीधे गाड़ी नही है और आप दो हिस्से में यात्रा कर रहे है तो यह बेहद जरूरी है की आपकी दोनों आरक्षित टिकट लिंक हो, एक दूसरे से कनेक्ट हो। गाड़ियाँ समयपर चले तो बेहतर है, मगर आपकी पहली गाड़ी आपके कनेक्टिंग स्टेशन पर देरी से पहुंचे और तब तक आपकी दूसरी गाड़ी निकल जाए तो कनेक्टिंग ई-टिकट में आपको छूटी हुई गाड़ी का फूल रिफण्ड मिल सकता है और जो कनेक्टिंग टिकट नही है तो गयी भैंस आई मीन आपका टिकट पानी मे। वही PRS टिकट में एक प्रावधान और मिलता है, आप स्टेशनमास्टर से आपकी टिकट पर अगली गाड़ी से यात्रा की अनुमती ले कर आगे बढ़ सकते हो। फिजिकल टिकट और ई-टिकट में यह सबसे बड़ा फर्क हमे नजर आया।

PRS टिकट का ग़ैरफ़ायदा भी बहुत यात्री लेते है, जैसे चार्टिंग के बाद टिकट वेटिंगलिस्ट रह जावे तो भी उसी टिकट पर अपनी यात्रा करते रहते है। यह बताते है की उन्हें उनके वेटिंगलिस्ट टिकट की ताजा स्थिति पता नही, या टिकट बाबू ने बोला गाड़ीमे पता चल जाएगा। हमने यह कुछ बातें आपके सामने लाई है, कुछ और भी आपको पता हो या प्रैक्टिकल जानकारी हो तो हमे जरूर बताए।

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