Uncategorised

अपनी बात : क्या कीजिएगा इन किरायोंका?

भारतीय रेल, हमारी नैशनल कैरियर याने सभी भारतियोंके लिए सुगम, सुलभ, किफायती यातायात का साधन। बड़े शहरोंकी उपनगरीय सेवा वहाँ की जीवन वाहिनी, लाखोंकी संख्या में रोजगार उपलब्ध करनेवाली संस्था। युद्ध हो या आपात स्थितियाँ सेवा में सदा तत्पर।

हमारे देश के नेताओंने रेलवे को कभी व्यवसाय की दृष्टि से देखा ही नही, हमेशा उसे जनोपयोगी सेवा ही समझा जाता रहा है। मराठी के जानेमाने कवी विन्दा करंदीकर की एक बहुत सुन्दर कविता है, ” देणाऱ्याने देत जावे, घेणाऱ्याने घेत जावे. घेणाऱ्याने एक दिवस देणाऱ्याचे हात घ्यावे.” अर्थात याचक ने किसी दिन दाता बनना आवश्यक है। यहाँपर हम रेलवे को दाता और यात्रिओंको याचक की स्थिति में देख रहे है।

यात्री और याचक? क्यूँ, याचक कहा तो गुस्सा आ रहा है? बिलकुल आना ही चाहिए। रेलवे अपने प्रत्येक टिकट पर छापती है, “इस टिकट का 57% किराया रेलवे खुद वहन कर रही है” यानी यात्री को आधा किराया ही देना पड़ता है, बाकी सब रेलवे अपने इतर कमाई में से उसकी भरपाई कर रही है। कभी आपने पढ़ी है वह लाइन? नही पढ़ी होगी तो अब पढ़ लीजिएगा और समझ भी लीजिएगा। इसके बाद कोफ्त होवे तो रेल प्रशासन को यह भी पूछ लीजिएगा की पूरा किराया चुकाने की क्या व्यवस्था है या बिना ऐसी लाइन छपे टिकट का मूल्य क्या होगा और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

आज हमारे हाथ, सोशल मीडिया में एक चिट्ठी लगी।

Image Courtesy : Piyush Shrivastava @ indiarailinfo.com

यह रेल किरायोंके हेतु गठित समिति के प्रस्ताव और उस पर की गई कार्रवाई की चिट है। आपको जानकर हैरानी होगी की यह प्रस्ताव सन 1979 में तत्कालीन रेल मंत्री स्व मधु दंडवते जी ने 20 फरवरी 1979 को अपने बजट भाषण में दर्शाए थे। पूरे 42 वर्ष हो गए, किराए जस की तस है। अब कौनसा पैमाना लगाया जाए, महंगाई भत्ते का या पे कमीशन का? केंद्रीय कर्मचारी की 1979 और 2021 की तनख्वाह का? या तब और आज के आटे-दाल के भाव का?

रेलवे के किराए कितने कम है और उसके मुकाबले बाकी यातायात के साधनोंके किराए कहाँ पोहोंच गए है, इसकी विस्तृत चर्चा करने का कोई औचित्य नही है। ‘दूध का दूध और पानी का पानी‘ सब को पता है। चन्द पैसोंसे रेल किराया बढ़ता है और उस पर भी आंदोलन करने वाले भी यह बात भलीभांति जानते है।

इस स्थिति में रेलवे कितने दिन दातार, दानवीर कर्ण बना रह सकता है, एक दिन ऐसा आएगा की रेल किरायोंकी सारी हदें टूट जाएगी और कुछ अलग ही मापदण्ड लग जाएंगे। रेल प्रशासन, राजनैतिक हर हद तक कोशिश करते जा रहे है, की किराए ना बढ़े, उनकी राजनीति पर असर का कारण रेल किराया न बने मगर कितने दिन? “बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी।” कितने दिन आप एसी थ्री टियर को एसी थ्री टियर इकोनॉमी कह कर चला लोगे, कब तक सब्सिडी दे दे कर यात्रिओंको रेल यात्रा करवावोगे? और कितने दिन रेल प्रशासन हमारा किराए का 57% वहन करेगी? आखिर कब तक?

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s