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कैग ने रेलवे पर रिपोर्ट बना दी, उपाय भी सुझाएं, मगर इनको असली जामा कैसे और कब पहनाया जाए? बाबागाड़ी छाप सुपरफास्ट, बैलगाड़ी छाप मेल/एक्स्प्रेस गाडियाँ क्या यह पहचान बनने जा रही है भारतीय रेल की?

‘धरलं तर चावतय अन सोडलं तर पळतय’ यह मराठी भाषा की कहावत है। इसका अर्थ यह है, किसी बेहद जरूरी कार्य को करने की दिशा ही नही मिल रही, आखिर उसे कहाँसे शुरु करें। रेल प्रशासन भी शायद इसी उलझन में उलझे जा रही है।

कैग ने कहा, अढाई लाख करोड़ रुपये बुनियादी सुविधा में खर्च हो गए, परिणाम शून्य है, बल्कि गति बढ़ाने के मामले की ग्रोथ माइनस है। दरअसल गच्चा कहाँ पड़ता है, देखिए;

शून्याधारित समयसारणी मे चार तरह की गाड़ियोंकी गति के आधार पर ग्रुपिंग की बात कही गई है, राजधानी और उस तरह की HST तेज गति वाली गाडियाँ130 kmph, मेल/एक्सप्रेस को 110 kmph, मेमू गाड़ियों को 100 kmph और EMU को 96 kmph मगर जो दिक्कतें है वह जस की तस है। इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर प्लेटफार्म नही बढ़े, लूप लाइन्स नही बढ़ी, टर्मिनल फैसिलिटी नही बढ़ी। स्टेशन डेवलपमेंट के नाम पर स्टेशनोंकी रंगरोगन, पत्थर लगवाना, चमकती लाइटें और यात्री सुविधाये मगर जो आवश्यक था वह छूटते चला गया। नए RKMP में क्या प्लेटफॉर्म बढ़े, या टर्मिनल फैसिलिटी बढ़ी? बड़ा प्रश्न है। जब रेल प्रशासन को लंबी दूरी की गाड़ियोंके स्टोपेजेस रदद् करने है तो उन रद्द स्टेशनोंके यात्रीओं के लिए विकल्प भी तो होना चाहिए ना? ZBTT, शून्याधारित समयसारणी को लागू करने में सबसे पहले सवारी गाड़ियाँ बढानी चाहिए, रेल्वेज के पास ICF कोच की भरमार है। जब तक मेमू रैक उपलब्ध नहीं किए जा सकते तब तक सवारी गाडियाँ जो भी रद्द हुई है या अतिरिक्त स्वरूप मे कोई गाडियाँ लानी है, बेशक छोटे दूरी के लिए ICF कोच की गाडियाँ सेवा मे उतारी जा सकती है। यात्री स्टोपेजेस के लिए आंदोलन, उपोषण पर उतर जाते है, अपने क्षेत्र के नेताओंके कान खाते है, नेता ऊपर जाकर क्षेत्र के जनता की दुर्दशा एवं परेशानी बयाँ कर वोटोंकी दुहाई देते है और उन्हे 3 माह का एक्सपेरिमेंटल हॉल्ट लेकर लौटा दिया जाता है, 3 महीने बाद और एक्सटेंशन मिल जाता है, स्टॉपजेस का खेला चलते रहता है।

कैग रिपोर्ट में वैज्ञानिक तरीकेसे, ZBTT शून्याधारित समयसारणी बनाने पर खासा जोर दिया है। WTT वर्किंग टाइमटेबल से शुरवात कर एक एक गाड़ी सेट करना, रखरखाव के लिए अलग टाइम स्लॉट बनाना, समयसारणी में मालगाड़ियोंके लिए अलग जगह रखना यह सब बातें है। संक्रमण काल मे रेल प्रशासन को यह सब प्रयोग करने के लिए बेहतर समय था, मगर अब, अब न देश रुकने के लिए राजी है न देश की जनता। वर्ष 2007 मे रेल्वे ने अपने गाड़ियोंकी सुपरफास्ट श्रेणी की व्याख्या तय की, 55 किलोमीटर औसत गति, आरंभ से अंत तक के स्टेशनोंके बीच। 110 kmph गति से चल सकने वाले चल स्टॉक को यह 55 वाली एवरेज स्पीड साध्य करना बहुत आसान है, ऐसा नहीं लगता आपको? बिल्कुल, रेल प्रशासन चाहे तो अपनी सारी मेल/एक्स्प्रेस को सुपरफास्ट श्रेणी मे एक झटके मे ही ला सकती है। इसका अर्थ यह हुवा की सूपरफास्ट के लिए 55 kmph वाला मापदण्ड बिल्कुल ही खोखला है। आज की हकीकत यह है, रेल्वे के बहुत से खंड 130 kmph क्षमता के हो गए है, चल स्टॉक अर्थात LHB कोच 200 kmph क्षमता के है, लोको, सिग्नल प्रणाली बेहतर है, लेकिन 55 kmph का मापदंड अभी भी वहीं का वहीं ही है। जब जब कोई गाड़ी मेल/एक्स्प्रेस से सुपरफास्ट मे उन्नयन की जाती तो उसके गति और समयसारणी की जगह उसके बढ़ाए गए सुपरफास्ट चार्ज की चर्चा ज्यादा होती है। और क्यों न हो, हमारे यहाँ सुपरफास्ट गाड़ियोंकी कतार मे ऐसी गाडियाँ है जो हर 25 किलोमीटर पर स्टॉपज लेती है भले उसकी एवरेज गति 55 क्यों न हो। अब तो यह चल रहा है की 25/30 kmph गति की, प्रत्येक स्टेशन पर रुकनेवाली भूतपूर्व सवारी गाड़ियों को भी जबरन एक्सप्रेस श्रेणी मे चलाया जा रहा है।


यह तरीका सही नही है, ना ही स्थायी है। लम्बी दूरी के गाड़ियोंके हर 25 किलोमीटर पर हाल्ट, बन्द होने ही चाहिए। 200 KM से अंदर लंबी दुरी की गाड़ी को ठहराव नही दिया जाना चाहिए। जब रेल प्रशासन के पास यात्री बुकिंग का विवरण होता है, प्रायोगिक ठहरावोके आँकड़े सामने रख ठहराव रद्द करना योग्य कैसे है इसका विवरण परिपत्र के जरिए यात्रीओं के सामने रखा जाना उचित व्यवस्था हो सकती है। गाड़ियाँ काफी उन्नत हो गयी है। 130 kmph बड़ी सहजता से निकल जाती है। 110 kmph तो आम बात है। लेकिन बात फिर वही अटकती है, गाड़ी यदि प्रत्येक 25 किलोमीटर पर लूप लाइन मे ले जा कर रोकनी है और फिर से मेन लाइन पर ला कर दौड़ानी है, कहाँ से एवरेज गति 55 से ऊपर की मिलेगी? फिर उसके पीछे चलने वाली राजधानी टाइप HST गाड़ी भी पीटती है, उसे भी एवरेज गति नहीं मिल पाती। पटरियों पर इंसानों, मवेशियों का घूमना आम बात है। उसके लिए ट्रैक के दोनों ओर बाड़ लगाना बेहद जरूरी है। कई ऐसी छोटी छोटी मगर बेहद जरूरी बातें है जिन्हे शुरु करें तो रेल्वे की गति मे सुधार होगा।

रेल प्रशासन को कभी न कभी कड़े निर्णय लेना ही पड़ेगा फिर वह स्टोपेज रद्द के हों या सवारी गाडियोंका रद्दीकरण हो! क्या भारतीय रेल्वे अब भी वही 25 kmph के नीचे एवरेज मे चलनेवाली सवारी गाडियाँ चलाने का विचार रख रही है? फिर क्यों नहीं रद्द कर देते सवारी गाड़ियोंकी टिकट श्रेणी? 55 kmph वाली सुपरफास्ट कहलवाने मे रेल प्रशासन को खुद को शर्मिंदगी महसूस नहीं होती? यदि ना होती हो तो राजधानी और उस श्रेणी की हाई स्पीड गाड़ियोंके लिए एक ‘अल्ट्रा सुपरफास्ट श्रेणी’ बनाकर उसमे एक अलग सरचार्ज की उगाही कर सकते है ऐसी सलाह भी हम देते है। हाँ साहब, यदि सुपरफास्ट से बजाय तेज गति के केवल राजस्व बढ़ाने की ही अपेक्षा रखनी है तो ऐसे ही सही, अन्यथा यह सुपरफास्ट कहलाने का हक केवल उचित गाड़ियों को ही प्रदान करें। जल्द से जल्द शून्याधारित समयसारणी लागू करे, बंद पड़ी गाडियाँ शुरु करवाएं, टर्मिनल क्षमतावान न हो तो मुख्य स्टेशन पर गाड़ी खाली कर अगले स्टेशन पर पार्किंग करवाए, रखरखाव की व्यवस्था रेल कर्मियों को वहाँ भेज कर करवाए। अब बहुत समय जाया हो चुका है, क्या और आने वाले वर्षों मे भी रेल प्रशासन को, कैग के ताने ही सुनना है?

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