भारतीय रेल मे चलाए जानेवाले रैक का मानकीकरण किस तरह और किस कारण अपनाया गया है, पहले यह समझना जरूरी है। आईआईटी मुम्बई और आईआईएम अहमदाबाद के कुछ महानुभावों ने इस संबंध मे रेल प्रशासन के सहयोग से रेल्वे के शून्याधारित समयसारणी अर्थात रेल्वे समयसारणी की पुनर्रचना का जटिल काम हाथ मे लिया था। चूंकि रेल्वे समयसारणी मे केवल खाली समयों के स्लॉटस देख कर गाडियाँ बढ़वाने का काम अब तक होता रहा और इससे रेल्वे की महत्वपूर्ण मालगाड़ियों की परिचालन व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा साथही ट्रैकों, सिग्निलिंग और अन्य साधन सामग्री के रखरखाव के लिए भी उचित समय नहीं मिल पा रहा था। जब समयसारणी के सुधार की बात पर काम किया जाने लगा तो एक बात तकनीशियनों के नजर मे आई की इतनी गाडियाँ भारतीय रेल चलाती है मगर उनके रैकों मे बिल्कुल ही सुसूत्रता नहीं है।
भारतीय रेल अपनी गाड़ियोंके परिचालन मे सुसूत्रता लाने के लिए रैक शेयरिंग करती है। बहुत सी बार कम अंतर की इंटरसिटी गाड़ियोंके लिए एक ही रैक काफी होता है जो तकरीबन 200 – 400 किलोमीटर का फेरा, सुबह निकलकर देर शाम लौट आ कर पूरा कर लेता है। इण्टरसिटी गाड़ियोंसे ज्यादा लंबी दूरी के लिए चलनेवाली गाड़ियोंमे दो या उससे ज्यादा रैक लगते है जो दोनों ओरसे अपने फेरे लगाते है, तीसरे मे साप्ताहिक या सप्ताह मे पूरे दिन नहीं चलनेवाली गाडियाँ आती है जिनके रैक अन्य गाड़ियोंसे शेयर किए जाते है। इन सारी बातों का अभ्यास कर परिचालन करने के लिए रेल अधिकारी DSS/TRIMS सॉफ्टवेयर का उपयोग करते है। DSS का अर्थ है डीसीजन सपोर्ट सिस्टम और TRIMS का अर्थ है टर्मिनल रैक इंफरमेशन एण्ड मेन्टेनंस शेड्यूलिंग। इन तमाम बातों मे रैक इन्फो अर्थात गाड़ी की संरचना विस्तृत जानकारी का बड़ा महत्व है। जिसमे गाड़ी का आगमन समय, प्रस्थान समय, आगमन टर्मिनल, प्रस्थान टर्मिनल, प्लेटफ़ॉर्म, रखरखाव के लिए लगनेवाला समय, किस प्रकार का रखरखाव करवाना है, रैक का परिचालन अवधि, रैक तैयार करने के लिए उपलब्ध समय, रैक के उपयोग की अवधि, विशिष्ट गाड़ी के परिचालन हेतु लगनेवाले रैक की संख्या यह सारे निर्णय सॉफ्टवेयर की मदत से लिए जाते है।
भारतीय रेल जब अपनी यात्री गाडियोंका परिचालन करती है तब उन्हे कुछ विशेष मदों का ख्याल रखना पड़ता है। गाड़ी की समयसारणी, रैक का रखरखाव और रैक की संरचना। रखरखाव के तीन प्रकार है, PM/SM/RRI गाड़ी के प्रत्येक फेरे के बाद रखरखाव किया जाता है, क्योंकी प्रत्येक 2500 किलोमीटर पर गाड़ी के रैक का प्रायमरी मेन्टेनंस PM जिसके लिए तकरीबन 6 घण्टे और प्रत्येक 1500 किलोमीटर के बाद 1 से डेढ़ घण्टे का सेकेंडरी मेन्टेनंस SM आवश्यक है। हालांकि नवनिर्मित LHB रेको के आवश्यक रखरखाव की अवधि इससे अलग हो सकती है। प्रायमरी मेन्टेनंस मे गाड़ी की सफाई और धुलाई के अलावा उसके धुरियों की सघन जांच, यदि जरूरत हो तो सुधार, ऑइलिंग, बोगी की स्प्रिंग और ट्रॉली की जांच करना आता है और इसके लिए रैक को पीट लाइन ( मेन्टेनंस के लिए बनाई गई विशेष जगह ) पर ले जाना आवश्यक है। सेकेंडरी मेन्टेनंस मे गाड़ी की धुलाई, सफाई और स्प्रिंग की स्थिति, एक्सल के तापमान की जांच की जाती है और तीसरा प्रकार है RRI रेडी टू रन इंस्पेक्शन जो टर्मिनल प्लेटफ़ॉर्म पर भी संभव है।
जब किसी एक टर्मिनल पर, एक ही दिशा मे परिचालित गाड़ी का रैक उपलब्ध कराने मे ज्यादा समय लग रहा है या किसी कारणों की वजह से अन्य गाड़ी का रैक किसी अन्य गाड़ी मे उपयोग करना है तो सबसे बड़ी समस्या आसमान डिब्बा संरचना की आती है। कम ज्यादा डिब्बे, समान श्रेणी के डिब्बों की अनुलब्धता के वजह से किसी भी असाधारण परिस्थितियों मे रैक उपलब्ध होने के बावजूद रेल प्रशासन गाड़ी का परिचालन करने मे असमर्थ हो जाती है या रैक की मांग के अनुसार अलग अलग श्रेणी के कोचों की शंटिंग करने में वक्त जाया करना पड़ता है। इस परेशानी से निजाद पाने के लिए भारतीय रेलवे यात्री ट्रेनों में कोचों की संख्या को समान रूप से 22 या उससे कम करने की योजना बना रहा है और इस वजह से कोचों की संख्या और श्रेणी मानकीकृत होने के बाद रेलवे अधिक ट्रेनें चला सकेगा। विभिन्न रखरखाव केंद्रमे इस तरह समय की पाबंदी में सुधार करने में मदद मिलेगी। रेक के उपयोग में और सुधार होगा, समयपालन में सुधार होगा, गाड़ियोंके पुनर्निर्धारण को कम करेगा और पिट लाइनों के टाइम स्लॉट की बचत होगी। बेहतर रेक टर्नअराउंड और ट्रेन संचालन के बेहतर लचीलेपन के कारण भारतीय रेलवे की समग्र आय में सुधार होगा। हमारे पास पुराने आंकड़ों के अनुसार, 2700 में से लगभग 1000 रेकों को मानकीकृत/एकीकृत कर दिया गया है।

रैक मानकीकरण के दो चेहरे है, रेल प्रशासन के फायदे तो आपने समझ लिए मगर दूसरा चेहरा है, जो भारतीय रेल की यात्रा महंगी करने चला है। भारतीय रेल, रैक मानकीकरण के नाम पर आम यात्रीओंमे लोकप्रिय और किफायती स्लीपर कोच, द्वितीय श्रेणी कोच बड़े आसानी से घटा देती है। मानकीकरण के पहले जिस ट्रेन में 12/13 स्लीपर कोच थे उनमें 6 – 7 स्लीपर कोच रह गए है। आम आदमी अभी इससे उबर भी नही पाया था की रेलवे प्रशासन ने वातानुकूल तृतीय श्रेणी इकोनॉमी कोच का आविष्कार किया, जिसमे फिर स्लीपर कोच का ही पत्ता साफ किया गया और कई गाड़ियों में अब स्लीपर कोच महज 5-6 ही रह गए । अब समझ में नहीं आ रहा की रैक मानकीकरण का कैसा अर्थ निकाल रहा है रेलवे प्रशासन? क्या रेल प्रशासन इस रैक मानकीकरण का उपयोग कहीं न कहीं आम यात्रियों को गैर वातानुकूलित वर्ग से वातानुकूलित सेवाओं अपग्रेड (?) तो करने मे नहीं न कर रहा है? चूँकि हाल ही मे सम्पूर्ण वातानुकूलित नई गाडियाँ वन्दे भारत की चर्चाएं जोरों पर है। आने वाले कुछ ही वर्षो में कई सारी वंदे भारत को पटरी पर लायी जायेगी। मानकीकरण के आधार पर रेल यात्री को स्लीपर श्रेणी से एक टप्पा आगे वातानुकूलित इकॉनोमी कोच की तरफ ढकेला ही जा रहा है, बस सहज है, 2-4 वर्षों मे रेल्वे की लंबी दूरी वाली यात्रा अपनेआप महंगी होती चली जाएगी।