हमारे देश भारत मे इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट अर्थात बुनियादी विकास कार्य ज़ोरोंपर है। हाईवे मजबूत और चौड़े किये जा रहे है। उसी तरह रेल्वेज में भी भारी बदलाव हो रहा है।
रेलवे और रोड़ के विकसित करने में मूलभूत फर्क है। सड़कें बनाने में जमीन अधिग्रहित करना, उसे सुधारना और सड़क तैयार करना वहीं रेलवे बिछाने में हर तरह की सामग्री विशिष्ट है। जमीन अधिग्रहण के बाद उसे सुधारना, पटरी डलने लायक बनाना, उस काबिल उतार चढ़ाव सुनिश्चित करना, पटरी बिछाना। आगे सड़क बनते ही उस पर चलनेवाले वाहन सार्वजनिक हो या निजी दौड़ना चालू हो जाता है वहीं रेलवे का मार्ग से लेकर उसपर दौड़ने वाले वाहन तक सब रेल प्रशासन के जिम्मे है। यहाँतक की चालक, वाहक, रखरखाव कर्मी, उनका प्रशिक्षण, भर्ती सब कुछ रेल प्रशासन ही देखता है। सड़क निर्माण के बाद उसके उपयोग के लिए प्रशासन को कोई अतिरिक्त काम नही करना पड़ता। यह सिर्फ यहाँतक नही रुकता अपितु रेल यातायात में यात्री सुरक्षा और सुविधाओं का भी जिम्मा रेल प्रशासन का ही है। प्लेटफार्म, प्लेटफार्म पर यात्री सुविधाएं, उनके टिकिटिंग, बैठक व्यवस्था, खानपान ई. और यही व्यवस्था कर्मियोंके लिए भी। कुल मिलाकर मामला बहुत पेचीदा है।
सबसे बड़ी दिक्कत जमीन अधिग्रहण से शुरू होती है। सडकोंके लिए जमीन अधिग्रहित हुई तो जमीन धारक की बल्ले बल्ले हो जाती है। जमीन अधिग्रहण का सरकारी दाम तो मिलता ही है, आगे उसकी बाकी बची जमीन के दाम औने पौने बढ़ जाते है। उसकी जमीन सीधे वाणिज्यिक उपयोग में आ जाती है। वहीं जमीन पर से रेल निकले तो जमीन मालिक को जो दाम सरकार द्वारा मिलेगा इसके अलावा कोई लाभ नही मिलता। इसीलिए रेल के लिए जमीन अधिग्रहण में बहुत दिक्कतें आती है।
इसके बाद शुरू होती है, विकास की चाहत। पटरी डल जाए, विद्युतीकरण भी हो जाये मगर यात्री गाड़ियोंकी मांग अनुरूप रेल विभाग के पास साधन-सामग्री, संसाधन, कर्मियोंकी उपलब्धता भी तो उपलब्ध होना चाहिए ना? आज कई रेल मार्ग बन कर तैयार है और यात्री रेल गाड़ियोंकी बाट जोह रहे है। अकोला – आकोट पर सुरक्षा निरीक्षण हो कर वर्षों बीत गए, जबलपुर – गोंदिया – बल्हारशाह यह नवनिर्मित गेज परिवर्तन वाला मार्ग, जिसमे गोंदिया – बल्हारशाह बन वर्षों हो गए कोई भी नियमित गाड़ी अपना जबलपुर – इटारसी – नागपुर मार्ग बदल इस मार्ग पर डाली नही गयी। अमरावती – नरखेड़ मार्ग ऐसे कई उदाहरण है।
रेलवे प्रशासन को अपनी चल स्टॉक, बहुतसी बाधाओंका ध्यान रखते हुए निर्णय लेने होते है। नवनिर्मित, गेज बदले मार्ग फिलहाल तो नियमित गाड़ियोंके लिए पर्यायी मात्र रेल मार्ग है जो आपातकाल में उपयोग किये जा सकते है या पण्यवहन हेतु उपयोग में लाये जाएंगे। यह भी हो सकता है, रेल प्रशासन जिस तरह मेमू गाड़ियोंका उपयोग बढ़ा रही है, इन दो मुख्य जंक्शन्स के बीच की ब्रान्च लाइनोंमें मेमू गाड़ियाँ चलवा दे। फिलहाल यही सम्भावनाएं दिखाई पड़ती है।
अब स्टेशनोंके विकास की बात कर लेते है। सैकडों, हजारों करोड़ रुपयों की योजनाएं लाकर नए स्टेशन विकसित किये जा रहे। रानी कमलापति और सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैय्या टर्मिनल यह उदाहरण है। रानी कमलापति स्टेशन पर अब भी गाड़ियाँ प्लेटफार्म के अभाव में बाहर खड़ी की जाती है। अर्थात करोड़ों रुपयों के खर्च किये जाने के बावजूद वहीं ढाक के तीन पांत! आगे स्टेशनोंकी इमारतों के विकास के लिए हजारों करोड़ रुपयों का प्रावधान है, सूची लम्बी है। हम कहते है, पुराने स्टेशन यथावत ही रखे और इसके बदले आसपास जहाँ यथोचित जगह उपलब्ध हो बड़ा, बृहद और सर्व समायोजन हो पाए ऐसे स्टेशन, टर्मिनल का निर्माण हो। उदाहरण के लिए पुणे स्टेशन देखिए। जगह उपलब्ध ही नही है, क्यों और क्या विकास होगा? मात्र सौंदर्यीकरण होगा। जबकि आसपास के 5-50 किलोमीटर परिसर में बड़ी जगह में 15-20 प्लेटफार्म बनें इस तरह की व्यापक योजनापर काम हो तो यथार्थ रहेगा।
शहरों और आम जनता की विकास और विकास के साधनोंकी भूख बढ़ती ही जाएगी। जब विकासक अपने कोटर से मुठ्ठीभर चने, मटकी मे बजाते हुए, बड़ी इच्छाओं, आकांक्षाओंके सपने संजोए जनमानस के सामने पहुचेंगे तो उनके विकास के सपने धरे के धरे ही रहना निश्चित है। यह वह विकास कदापि नही है, जिसकी चाह या जरूरत भारतीय रेल के यात्रिओंको है।