भारतीय रेल की हालिया स्थिति बयान करती लोकोक्ति। अब आप कहेंगे, क्या सचमुच यह स्थिति है? तो ज़नाब आप जरूर रेलवे के अप्पर क्लास के वातानुकूल श्रेणियों की ठण्डी बयार लेते हुए आरक्षित यानों में यात्रा करने करने वाले यात्री होंगे। अमूमन द्वितीय श्रेणियोंके ग़ैरवातानुकूलित वर्गोंकी परिस्थितियों को बयां करती निम्नलिखित तस्वीरों को देखिए।


क्या यह यात्री भारतीय नागरिक नही है? क्या इन्होंने अपनी रेल यात्रा की टिकट रेल प्रशासन के निर्धारित किराया मूल्य में नही खरीदी है? मित्रों, यह लोग भी जेन्युइन अर्थात वास्तविक, सच्चे रेल यात्री है। मगर ये इस तरह यात्रा करने को क्यों मजबूर है? इसकी वजह है, रेल प्रशासन का अनियंत्रित कारोबार।
अब देखिए, किसी एक गाड़ी में मात्र 2 या हद हो गयी 3 द्वितीय श्रेणी कोच रहते है। मतलब आधुनिक LHB कोच भी हो तो अधिकतम 300 यात्री क्षमता। मगर बेचें जाने वाले टिकटोंकी संख्या कई गुना ज्यादा होती है। द्वितीय श्रेणी ग़ैरवातानुकूलित कोचों में एक वर्ग स्लीपर क्लास भी है, जो केवल आरक्षित यात्रिओंके लिए बन्धन कारक है। लेकिन जब द्वितिय श्रेणी के कोच इस तरह लबालब भरे हो तो सहज है की यात्री चलते, दौड़ते, गिरते, पड़ते इन स्लीपर कोचों के दरवाजों का सहारा लेता है। और मजबूरी में दण्ड वगैरे भर भराकर अपनी रेल यात्रा निपटने का प्रयास करता है।
ग़ैरवातानुकूलित द्वितिय श्रेणी आरक्षित स्लीपर क्लास की स्थिति द्वितीय श्रेणी सामान्य वर्ग से कुछ बहुत ज्यादा अलग नही रहती, बस यह फ़र्क होता है, की आसनोंपर अग्रिम आरक्षण धारक जमे हुए रहते है और उनके आसपास, अगलबगल में 6 इंच की भी जगह खाली हो तो उसपर प्रतिक्षासूची के PRS टिकट धारक, रोजाना यात्रा करनेवाले सीजन टिकट धारक, रेलवे के यूनियन कार्डधारक कर्मचारी (?) ठूंसे हुए रहते है। बची जगह पैसेज, दरवाजे, शौचालय और उसके सामने का बरामदा वह द्वितीय श्रेणियोंके मजबूर यात्रिओंसे भरा रहता है। यह क्या कम है की इतनी व्याकुल और गम्भीर स्थितियों में भिखारी, अवैध विक्रेता, झाड़ू को अपना टिकट बनाकर रेल सफाई अभियान के स्वयं नियुक्त उमीदवार, तृतीय पंथी भी बीच बीच मे फेरी लगाते रहते है। और जिन्होंने बाकायदा फेरी लगानी है वह सुरक्षा कर्मी, चल टिकट निरीक्षक नदारद रहते है।
कहने को रेल मद्त, रेल सेवा ऐप है। शिकायत पर तुरन्त कार्रवाई का आश्वासन भी मिलता है। मगर क्या सचमुच कोई कार्रवाई होती है? क्या कभी किसी ने देखा है, की स्लीपर कोच या द्वितीय श्रेणी कोचोंको नियमानुसार खाली करवाये गए हो और कोच क्षमताओं के अनुसार ही यात्री आसनस्थ किये गए हो? शायद नही। क्योंकी हर यात्री, हर भारतीय यात्री की यह चाहत होती है, कौन सा मेरे सर पर बैठ कर जा रहा है या 2 -4 घंटे या आज दिन की ही तो बात है, थोड़ा एडजस्ट कर लिया जाय। बस शायद यही रेल प्रशासन की भी नीति हो गयी है।
रेल प्रशासन को स्लीपर क्लास के PRS प्रतिक्षासूची के छपे हुए टिकट शीघ्र अतिशीघ्रता से बन्द करने चाहिए। टिकट भले ही काउन्टर से बीके मगर उन्हें छपाने की बजाय ई-टिकट और डिजिटल पेमेंट कराकर ही जारी किया जाए ताकी चार्टिंग होने के बाद यदि कोई PNR प्रतिक्षासूची में अटक जाए तो वह ऑटोमेटिकली, स्वचलित ही रद्द हो जाये और यथावत रिफण्ड किया जाए और यह लोग जबरन यात्रा करते न पाए जाए।
दूसरा उपाय स्वचालित दरवाजोंका है और ऐसेभी सुनने में है, की रेल प्रशासन वातानुकूलित द्वितीय श्रेणियों के कोच पर भी काम कर रही है। जो न सिर्फ यात्री सुरक्षा बल्कि यात्री संख्या का नियोजन करने में भी उपयुक्त हो सकता है।
कुल मिलाकर यह समझा जा सकता है, की रेल प्रशासन अपनी ‘अंधेर नगरी’ वाली उक्तियों से बाहर निकलने का प्रयत्न कर रही है, मगर कुछ नासमझीयोंके चलते यात्री भी उसके साथ खड़े रहने को तैयार नही है। उदाहरण के तौर पर आप मुम्बई उपनगरीय गाड़ियोंके वातानुकूलिकरण का ले सकते है। वहांपर स्थानिक नेताओं को आगे कर रेलवे की सुरक्षित, आरामदायक वातानुकूलित सेवाओं को बन्द करने को बाध्य किया गया और इस तरह रेल प्रशासन के दूरगामी उपायोंको ठण्डे बस्ते में डालना पड़ा। शायद यही नीति रेल विभाग के द्वितीय श्रेणियोंके आधुनिकीकरण में भी रोड़ा डाल सकती है।
जब तक यात्री एडजस्ट करते हुए यात्रा करने के लिए तैयार है, तब तक रेल विभाग को भला क्या दरकार होनी है? चलने दीजिये, ‘टका सेर भाजी और टका सेर खाजा’ 😢
लेख में प्रस्तुत तस्वीरें इंटरनेट के माध्यम से वायरल हुई है, इसका श्रेय जिन्होंने भी खींची है उनको समर्पित है।