संक्रमण काल क्या आया तमाम भारतीय रेल से सवारी गाड़ी नामक व्यवस्था को आम यात्रिओंसे छीन ले गया। मार्च 2020 से भारतीय रेल नेटवर्क से ‘सवारी गाड़ी’ गुमशुदा है, अपहृत है या मार दी गयी है।
‘सवारी गाड़ी’ की मौजूदा स्थिति बताने के लिए इतने पर्याय? जी, वह इसलिए की न रेल प्रशासन इसका कोई जिक्र करता है न ही जनप्रतिनिधि। यहॉं तक की रेल यात्री भी बेचारे इन ‘सवारी गाड़ियों’ को भुला चुके है। औसतन 25-30 kmph की गति से, मार्ग के हर छोटे बड़े स्टेशनोंपर से सवारियों को बिठाती, उतारती यह गाड़ियाँ अपने अत्यंत कम किराया दर के लिए जानी जाती थी। इससे यह मत समझ लीजिए, की केवल किराया कम होने की वजह से यात्री इनमें यात्रा करते थे, इन गाड़ियोंमे स्लीपर कोच भी लगते थे। लोकप्रियता की हद यहॉं तक की कुछ सवारी गाड़ियोंमें वातानुकूल थ्री टियर और पुराने प्रथम श्रेणी कोच भी चलते थे। छोटे-छोटे गाँव को बड़े शहरोंसे जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य यह गाड़ियाँ करती थी। लगभग हर स्टेशनपर चढ़ने, उतरने वाले यात्री होने से यात्रिओंको जगह की भी किल्लत महसूस न होती। खेतोंसे लकड़ी, चारा भी चढ़ा दिया जाता तो गांवों से दूध के कैन भी लटका दिए जाते थे।

कहने को सभी जगहों पर रुकने वाली सवारी गाड़ियोंका रूप बदल उन्हें डेमू/मेमू बना दिया है, मगर वह वाली बात इन नई आधुनिक गाड़ियोंमे नही और न ही सस्ते वाले किराये रह गए है। यह सभी गाड़ियाँ उनकी पुरानी औसत गति को बरकरार रखते हुए एक्सप्रेस और विशेष एक्सप्रेस बना दी गयी है। जहाँ हर कोच में 90 आसन होते थे और हुड़दंगे बच्चोंके के लिए ‘ऊपर बिठा दो’ वाली ऊपरी बर्थ! तो भरपूर यात्रिओंको समानेवाली गाड़ी अब सिमट कर गिनेचुने सीट्स और ढेर खड़े रहने की जगह के साथ चलाई जा रही है।

छोटे गांवों के यात्रिओंका दुर्भाग्य यह है, की कोई भी जनप्रतिनिधि इन सवारी गाड़ियोंको याद तक नही कर रहा ना ही कोई रेल संगठन इन गाड़ियोंके लिए मांग तक कर रहे है। जिस उस को बस तेज, और तेज वाली वन्देभारत वातानुकूल गाड़ियोंकी ज़िद पड़ी है।
सभी तस्वीरे indiarailinfo.com से साभार