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अनियमितताओंसे निजात पाने के लिए क्या कर सकता है, रेल प्रशासन!

23 मार्च 2024, रविवार, फाल्गुन, शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी, विक्रम संवत 2080

यूँ तो भारतीय रेल और उसके रेलवे स्टेशनोंने अपना रंगरूप, कलेवर काफी हद तक बदल लिया है मगर यात्री है की अभी तक पुराने ढर्रे पर ही अटके हुए है। रेल प्रशासन ने स्टेशनोंपर खानपान विभाग में हर जगह नियमावली लिख रखी है, छपे मूल्य से ज्यादा दाम न दें। सामान, सामग्री के भुगतान हेतु बिल की माँग करें। यह बात और है, की ना ही विक्रेता के पास बिलिंग मशीन्स है और न ही यात्री को बिल की दरकार रहती है। 😊

सबसे बड़ा घोटाला पानी बोतलोंका है। रेल प्रशासन की इकाई, आईआरसीटीसी ‘रेल नीर’ का उत्पादन एवं वितरण करती है। ₹15/- अधिमूल्य की बोतल पर विक्रेता महज 10 से 15% कमाता है। वहीं अवैध ब्रैंड की बोतल पर उसे 100% कमाई है। अमूमन प्रत्येक आम रेलयात्री, पानी बोतल चाहे रेल नीर की हो या कोई अनब्रांडेड, सीधे ₹20/- में ही खरीदता है। हो सकता है, समस्या छुट्टे पैसे की है, न कोई विक्रेता ₹5/- लौटाता है, न ही खरीददार उससे लौटाने की अपेक्षा रखता है। यहाँ पर रेल विभाग अपने ब्रैंड रेल नीर की कीमत ही क्यों न ₹20/- कर दे? इससे एक छुट्टे लेनदेन की मुसीबत खत्म हो जाएगी दूसरा विक्रेता का कमीशन बढ़ेगा, ग्राहक को संतुष्टि रहेगी उसने उचित दाम देकर खरीदा और रेल प्रशासन चाहे तो उस अतिरिक्त दाम का उपयोग अपने सुरक्षा निधि, यात्री बीमा के लिए भी कर सकती है।

रेलवे स्टेशनोंपर अधिकृत वेंडर्स के लिए GPS और आधार बेस्ड आई डी कार्ड बनवाए जाए। इससे रेल सुरक्षा अधिकारियों को यह पता रहेगा, रियल टाइम में कितने वैध विक्रेता काम कर रहे है और इसके अलावे बाकी सारे अवैध है।

किसी भी सूरत में बिना पैक खाना न बेचा जाए, चाहे वह नाश्ता हो या भोजन या फिर फल। समोसा, कचौड़ी या पुड़ी भाजी सारी खाद्य सामग्री उत्पादन तिथि और मूल्य की लेबलिंग के साथ पैकिंग कर बेची जाए। चाय, कॉफी, दूध इत्यादि के लिए केवल प्रमाणित वेंडिंग मशीन्स ही वैध रहना चाहिए। खुली थर्मास से बेची जाने वाली चाय, कॉफी तुरन्त ही बन्द की जाए।

स्टेशनोंपर जब गाड़ी पहुंचती है तब देखिए, कितने वेंडर्स अपना सामान आवाज लगा कर बेच रहे होते, क्या यह सब अनुज्ञप्ति प्राप्त लोग होते है? क्या इनकी सामग्री मान्यताप्राप्त है? आजतक किसी पर्यावरण, मानवता वादी संगठन का रेलवे स्टेशनोंपर खुले में बेचे जाने वाले खाद्य सामग्री पर ध्यान ही नही गया होगा। मुख्य मार्ग के जंक्शन स्टेशनोंपर खानपान इकाई का, एक एक दिन का एक एक लाख रुपयोंका लेनदेन हो जाता है। खानपान की खुली सामग्री अर्थात आलूबड़ा, कचौड़ी, समोसा, पूड़ी भाजी इत्यादि मानक के अनुरुप है या नही, सामग्री का वजन उसका उत्पादन कैसे हुवा, कहाँ हुवा इसका भी कोई भरोसा नही।

इंटरनेट से साभार। यह प्रतीकात्मक तस्वीर है, ऐसे कई अवैध वेंडर्स आपको रेल के साधारण वर्ग के द्वितीय श्रेणी से वातानुकूलित उच्च आरक्षित वर्ग के कोचों तक अपनी सामग्री धड़ल्ले से बेचते नजर आएंगे और हैरानी की बात है, यात्री भी इनसे बिना किसी खौफ के सामग्री खरीदते है।

ऐसी स्थिति में बिना बिल के, यात्री सामग्री खरीदता है और उसे खाकर यदि बीमार हो जाए, उसे अन्न विष बाधा हो जाए तो क्या रेल प्रशासन इसके लिए जिम्मेदार नही? रेल प्रशासन के दायरे में रेलवे स्टेशन, प्लेटफार्म, चलती हुई गाड़ियाँ सम्मिलित है। और उनकी पुरी जिम्मेदारी है, गाड़ी में एक भी बिना अनुज्ञप्ति प्राप्त विक्रेता चले या अपनी निकृष्ट दर्जे की सामग्री बेचें। साथ ही साथ यात्री की भी जिम्मेदारी बनती है। उन्होंने भी बिना बिल के खाद्य सामग्री नही खरीदनी चाहिए और न ही अवैध विक्रेता से कोई माल खरीदना चाहिए। इस तरह का व्यवहार उसके जान माल की सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है।

यह जरूरी हो जाता है, रेल प्रशासन अब तो अपनी सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद कर ले। अवैध विक्रेता और उसकी सामग्री पर नकैल कसे, उनपर क़ानूनी कार्रवाई करें और यात्रिओंको सुरक्षित महसूस करवाए।

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