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अवधारणाओंसे खिलवाड़ : कैसे चल पाएगी रेल सुनियोजित पद्धति में..

23 मार्च 2025, रविवार, चैत्र, कृष्ण पक्ष, नवमी, विक्रम संवत 2081

भारतीय रेल, हर भारतीय के मन मे बसी, दिल से लगी एक यातायात व्यवस्था। सुचारू, सुरक्षित और सबसे बड़ी बात, किफायती। बीते वर्षोंतक यह व्यवस्था दुरुस्त थी या यूँ कहे की उस पर पड़ने और बढ़ने वाले बोझ को इत्मीनान से खींच रही थी। बोझ लगातार बढ़ते चला जा रहा था, चरमराहट भी लग रही थी मगर हमे आदत है, ‘ थोड़ा सा एडजस्ट’ करते रहने की, सो एडजस्टमेंट चलता रहा और रेल गाड़ियाँ भी चलती रही, चलती जा रही है।

भारतीय रेल में माल वहन और यात्री सेवा ऐसे मुख्यतः दो परिचालन होते है। यात्री सेवा सीधे जनमानस को जोड़ती है तो माल परिवहन यात्रिओंसे थोड़ा दूर ही है। हालाँकि माल परिवहन भी जन हित मे ही होता है। जैसे ईंधन, बिजली संयंत्र का कोयला, कलकारखानों के लिए अयस्क इत्यादि मगर बात वहीं की यात्री को इनसे सीधा फर्क नही पड़ता इसलिए उन्हें इन मालगाड़ियों के परिचालन में ज्यादा औचित्य नही रहता।

देश मे जैसे जैसे आर्थिक विकास बढ़ते चला गया, कारखाने, बिजली उत्पादन संयंत्र लगने लगे, इन मालगाड़ियों की आवाजाही भी बढ़ने लगी। रेल की बुनियादी व्यवस्था अर्थात पटरियाँ, लोको, मालवहन डिब्बे, मालगाड़ियों की गति इनके विकास पर ज्यादा ध्यान नही दिया गया, बस उपलब्ध ढाँचे में, यात्री गाड़ियाँ बराबर बढाते चले गए।

यात्री गाड़ियोंमे के परिचालन में भी एक अवधारणा के अनुसार गाड़ियाँ चलाई जाती थी। मुख्य रेल मार्ग पर लम्बी दूरी की मेल/एक्सप्रेस गाड़ियाँ, महानगरों के लिए उपनगरीय रेल और दो बड़े जंक्शन स्टेशनोंको जोड़ने वाले उप मार्ग अर्थात ब्रांच लाइन्स पर सवारी गाड़ियाँ। यह सवारी गाड़ियाँ सभी छोटे छोटे स्टेशनोंपर रुकती थी और मेल/एक्सप्रेस गाड़ियाँ बड़े और जंक्शन स्टेशनोंपर रुकती थी। दो पद्धती के किराए, सवारी गाड़ी या एक्सप्रेस गाड़ी। आरक्षित या अनारक्षित। फिर आरक्षित में अलग अलग वर्ग। यात्री गाड़ियोंकी अवधारणा यह थी, छोटे स्टेशनोंके यात्री सवारी गाड़ी में यात्रा करते थे और लम्बी रेल यात्रा के लिए जंक्शन स्टेशनोंसे अपनी गाड़ियाँ बदलते थे। मेल/एक्सप्रेस गाड़ियाँ छोटे स्टेशनों, उपनगरों में नही रुकती थी और इसके लिए किसी यात्री को कोई दिक्कत या परेशानी नही थी। रेलगाड़ियोंकी यह कन्सेप्ट, अवधारणा आम रेल यात्रिओंको सर्वसम्मत थी।

धीरे धीरे विकास का वेग बढ़ता गया और यात्रिओंकी तेज रेल सेवा की माँग भी सामने आयी। उपलब्ध अवधारणा में सुपरफास्ट नामक यात्री सेवा बढाई गई। यह गाड़ियाँ मेल/एक्सप्रेस गाड़ियोंके मुकाबले थोड़ी तेज और कम स्टोपेजेस के साथ चलती थी। सुपरफास्ट गाड़ियोंमे और नया क्या लाया जा सकता था? मगर राजनेता और राजसेवा, इन्होंने एक दिन में एक फेरा पूर्ण करने वाली शताब्दी एक्सप्रेस और राज्यों की राजधानी से देश के राजधानी को जोड़ने वाली ‘राजधानी’ एक्सप्रेस का अविष्कार किया। यह प्रीमियम, उच्च दर्जे की गाड़ियाँ थी। यात्रिओंको तेज गति के साथ साथ अति विशिष्ट आरामदायक सेवा और अचूक समयपालन का वादा यह इन गाड़ियोंकी विशेषता थी। भारतीय रेल में गाड़ियोंकी श्रेणियाँ बढ़ने लगी।

अमुक नेता ने अमुक गाड़ी का अविष्कार किया तो नए आए नेताजी भला पीछे क्यों कर रह जाते? एक एक मंत्री जी आए और अवधारणाओं में विस्तार या युँ कहे खेला होता चला गया। शताब्दी के स्पर्धा में जनशताब्दी, तेजस। राजधानी की स्पर्धा में दुरन्तो, सम्पर्क क्रांति, हमसफ़र और गरीब रथ जैसी गाड़ियाँ लाई गई। हर बार पुरानी अवधारणा को रबड़ की तरह खींचा गया, कही तोड़ा, मरोड़ा गया। किसी को राजधानी जैसी मगर देश की राजधानी से जुड़ने वाली नही ऐसी तेज गाड़ी का अविष्कार करना था तो किसी को निम्न आय वालोंको सस्ते में वातानुकूलित कोच में यात्रा करवाना था। राजधानी जैसी ही मगर जिनमे सिर्फ उच्च श्रेणी ही न हो अपितु सर्वसाधारण कोच भी चले तो सम्पर्क क्रांति का अविष्कार हुवा।

वैसे आजकल मेन लाइन, ब्रान्च लाइन ऐसा कुछ नही रह गया है। लम्बी दूरी की गाड़ियाँ ब्रान्च लाइन से मुख्य मार्ग और फिर किसी ब्रान्च लाइन, फिर मेन लाइन ऐसे कूदते-फांदते निकल जाती है। इससे होता यह है, जंक्शन स्टेशनोंपर गाड़ियोंका दबाव बढ़ते चला जाता है, प्लेटफार्म कम पड़ने लगते है और गाड़ियोंकी औसत गति एक सीमा में बंधकर रह जाती है। आपने यह कई बार सुना होगा, अब गाड़ियाँ 110, 130 kmph की गति से चलेंगी मगर कुल औसत देखिए, 55, 60 से ज्यादा नही मिलेगी। आज भी भारतीय रेल की कोई भी गाड़ी अपनी पूर्ण यात्रा 100 kmph की औसत गति से नही कर रही है।

एक बात बताए की, जब शताब्दी चल रही है तो उसी अवधारणा की अलग गतिमान या नवनिर्मित वन्देभारत को अलग किराया श्रेणी, अलग दर्जे की विशेष जरूरत थी? शताब्दी को वन्देभारत में रीप्लेस, प्रतिस्थापित कर देते तो शायद उतना बड़ा इतिहास नही न बनता था, है न? वन्देभारत, वन्देभारत न रहती, नई शताब्दी बन कर रह जाती। 😊 वहीं बात अब राजधानी और वन्देभारत स्लिपर में भी लागू होती है। वन्दे मेट्रो और वातानुकूलित मेमू में कितनाक तो फर्क होगा? हाँ, नाम का, दाम का जरूर फर्क आएगा। वातानुकूलित मेमू उपनगरीय और दो शहरों के बीच चली तो वन्दे मेमू, है ना? वैसे आज भी आम यात्रिओंमें आधुनिक आठ या बारह कोच की मेमू गाड़ियोंसे पुरानी सवारी गाड़ियोंको चाहने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे। वह पुराने कोच लोगोंको ज्यादा उपयोगी लगते है। खैर, जमाना बदलेगा, तकनीक नई आएगी तो गाड़ियाँ भी बदलेगी। खास कर नया नेता आएगा, नए नाम की गाड़ियाँ लाएगा।😊

अब इन नई – नई गाड़ियोंको ले तो आए मगर उन्ही उपलब्ध टाइम स्लॉट्स में गाड़ियाँ घुसाते, एड्जस्ट करते चले गए। किसी एक वन्देभारत का उद्धाटन याने अगल-बगल की बीस गाड़ियोंकी समयसारणी का हिलना तय। उपलब्ध ढाँचे में एक तेज गाड़ी को प्रविष्ट करना याने अनेक पूर्व परिचालित गाड़ियोंको धीमा करना। यह तो अन्य यात्री गाड़ियोंकी बात मगर मालगाड़ियों का क्या? उन पर भी असर तो होना ही था, मालगाड़ियों को कितना एड्जस्ट कराते? एक वक्त आया की मेल/एक्सप्रेस/सुपरफास्ट गाड़ियोंको बगल में खड़ा रख कोयले से लदी मालगाड़ियों को ‘टॉप प्रायोरिटी’ में चलाना पड़ा। बेचारी ‘आजादहिन्द’ आज तक इन झटकोंसे उबर नही पा रही।😊 4 – 4 मालगाड़ियों की एक साथ जोड़कर 300 डिब्बों की शेषनाग, वासुकी, पायथन नामक गाड़ियाँ चलानी पड़ी।

फिर भूले-बीसरें, ठण्डे बस्ते में पड़ी माँगों के पुलिंदे खोले गए और पता चला की मालगाड़ियों के लिए समर्पित गलियारों, अलग ररेल मार्ग की माँग वर्षोंसे प्रलम्बित है। यह प्रोजेक्ट, यह बुनियादी सुविधा हाथ ली गई और दिल्ली – हावड़ा पूर्व मालगाड़ी गलियारा और दिल्ली – मुम्बई पश्चिम गलियारा का निर्माण हुवा। वर्षोंतक निर्माणाधीन इन प्रोजेक्ट्स पर अब मालगाड़ियां चलने लग गई है, हालाँकि अब भी यह पूर्ण रूप से जुड़े नही है, बस थोड़े ही बाकी रहे है।

इन समर्पित गलियारों के साथ ही हर मुख्य रेल मार्ग के जहाँ दो मार्ग है, उनका तिहरीकरण, चौपदरीकरण, जहाँ एकल मार्ग है, उसका दोहरीकरण सर्वोच्च प्राधान्यता से लिया गया और यह कार्य पूरे देशभर में चल रहा है। इसके साथ ही पूरे देशभर में रेल विद्युतीकरण लगभग पूरा होने को है। इससे देश के प्रत्येक रेल मार्ग पर लोको बदलने की समस्या पूर्ण रूप से खत्म हो जाएगी साथ ही महंगे ईंधन और प्रदूषण पर भी लगाम लगाया जाएगा।

आगे भारतीय रेल का भविष्य उज्ज्वल है। जब यह सारे बुनियादी ढांचे बन जाए, तेज गति की गाड़ियाँ अलग मार्ग पर चलाकर औसत गति बढ़ाई जा सकेगी और तभी इन LHB कोच, मेमू गाड़ियाँ, वन्देभारत ट्रेनसेट्स जिनकी गति क्षमता 160 – 200 kmph की है, अपनी पूर्ण क्षमता से चलेंगी, अपनी अवधारणाओं, कन्सेप्ट्स पर खरी उतरेंगी।

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