Uncategorised

भारतीय रेल की अनारक्षित यातायात पर नियंत्रण करने की असाधारण कवायद!

25 मार्च 2025, मंगलवार, चैत्र, कृष्ण पक्ष, एकादशी, विक्रम संवत 2081

“रेलवे स्टेशनोंपर अनियंत्रित भीड़, भगदड़ मची, इतने घायल” इस तरह के समाचार तो इन दिनों में आपने पढ़े ही होंगे और ऐसी यात्रिओंकी अनियंत्रित भीड़ को सहेजने, सम्भालने और उन्हें सुरक्षित करने हेतु, रेल प्रशासन द्वारा किए जानेवाले उपाय की खबरे भी आपके पढ़ने में निश्चित ही आई होंगी, वहीं यात्रिओंको गलियारों, तम्बूओं में रोक कर, बैरिकेडिंग कर के, धीमे धीमे नियंत्रित कर प्लेटफार्म पर छोड़ना। इसके आगे रेल प्रशासन द्वारा और भी विस्मयजनक उपचार अपनाने की खबरें मीडिया में आ रही है। यात्री भौचक है, आखिर हमारे साथ करना क्या चाहते हो?

दरअसल 2 – 4 दिनों पहले नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अनियंत्रित भीड़ की स्थिती की खबरें थी। युँ तो रेल प्रशासन ने तुरन्त ही हरक़त में आकर कोई आपदा घटित होने से पहले, स्थिती को सम्भाल लिया। मगर बात फिर वही अटक गई की इस यात्रिओंकी अनियंत्रित भीड़ पर क्या उपाय कारगर हो सकते है? इस पर बैरिकेडिंग के साथ साथ कुछ प्रस्ताव ऐसे आए है,

अनारक्षित टिकटोंकी की बेलगाम बिक्री पर नियंत्रण लाना चाहिए। अब किसी गाड़ी की क्षमता से केवल डेढ़ गुना ही टिकट वितरित किए जाएजब की फिलहाल जो यात्री, जितने टिकट की मांग करें, उसे बेच दिया जाता है।

अनारक्षित टिकट जारी करते वक्त उस पर उक्त मार्ग पर चलनेवाली गाड़ी का क्रमांक भी दर्ज किया जाए। प्रशासन यह सोचती है, इससे उनके पास उक्त गाड़ी की यात्री संख्या का लेखाजोखा रहेगा। हालाँकि रेल नियमावली में पहले ही इसके लिए एक व्याख्या बनाई गई है। टिकट जारी होने के समय से तीन घण्टे के अन्दर, यात्रा शुरू की जानी चाहिए। टिकट खरीदने के बाद तीन घण्टे तक कोई गाड़ी नही है या यात्री अपनी यात्रा शुरू न कर पाए तो सम्बन्धित स्टेशन मैनेजर से उस टिकट को पुनः वैध करवा सकता है।

किसी मार्ग पर चलनेवाली गाड़ियाँ लगातार देरी से आने की सम्भावना है, तो अतिरिक्त विशेष गाड़ी का प्रबन्ध किया जाए।

कहा जाता है, रेल प्रशासन द्वारा, उक्त प्रस्ताव, आनेवाले 4 – 6 महीनोंमें लागु किए जाने की तैयारी है।

इन प्रस्तावोंको लागू करने में और रेल विभाग की प्रचलित नियमावली को देखा जाए तो यह सहज समझा जा सकता है, की मर्ज़, व्याधि कुछ है और ईलाज़ कुछ और ही सोचा जा रहा है।

पहले हम उपरोक्त प्रस्तावों में आने वाली बाधाओंको समझते है,

उदाहरण लीजिए, मुम्बई के छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस या लोकमान्य तिलक टर्मिनस किसी एक टर्मिनस पर कोई गाड़ी के लिए अनारक्षित यात्रिओंकी भीड़ जुट जाती है। अब कोई भी नियमित गाड़ी में कमसे कम 4 अनारक्षित कोच रहते है, अर्थात 360 से 400 यात्रियोंकी आसन क्षमता और इससे डेढ़ गुना ही टिकट उपलब्ध किए जाएंगे। वैसे आजकल की यात्री संख्या देखी जाए तो उपलब्ध कराए जानेवाले टिकटों की संख्या बहुत कम है। फिर भी मान लीजिए, गाड़ी के प्रारंभिक टर्मिनस पर इतने टिकट बेच कर उक्त गाड़ी के टिकट की बिक्री बन्द कर दी गई। अब अगले स्टेशन दादर, ठाणे, कल्याण युँ करते करते समझिए गाड़ी गोरखपुर, पटना, हावड़ा, लखनऊ ऐसे गंतव्यों के लिए जानेवाली है, मार्ग में बीसियों स्टेशन पर ठहराव लेने वाली है, क्या हर स्टेशन के लिए रेल प्रशासन 540 से 600 टिकट बेचेगा? या हर स्टेशन का कोटा प्रणाली (आरक्षण प्रणाली के अनुसार) जारी करेगा? और प्रारम्भिक स्टेशन पर ही डेढ़ गुना भरे साधारण कोच में आने वाले मार्ग के हर स्टेशन के यात्री कहाँ और कैसे समाहित किए जाएंगे? डेढ़ गुना जारी किए जाने वाले टिकट की गिनती केवल प्रारम्भिक स्टेशन से गन्तव्य स्टेशन तक कि रहेगी या बीच के स्टेशनोंके लिए जारी टिकट उन डेढ़ गुना कोटे में गिने जाएंगे? है न पेचीदा प्रश्न?

और जब इस तरह की सांख्यिकी करनी ही है तो सबसे आसान काम यह है, सभी अनारक्षित टिकटों को अनिवार्य रूप से द्वितीय श्रेणी आरक्षित में बदल दिया जाए! एक एक यात्री और एक एक जगह का हिसाब लग जाएगा। इसमे आसन संख्या जितने कन्फ़र्म और उतनी ही संख्या जितने RAC टिकट जारी किए जा सकते है। RAC यात्री ऊपर के बर्थ पर बैठ कर या कॉरीडोर में खड़े रहकर या फर्श पर एड्जस्ट कर अपनी यात्रा ऐच्छिक रूप से कर सकते है। वरना अपना RAC टिकट रद्द कर धनवापसी ले सकते है। स्लिपर श्रेणी के RAC में, एक लोअर बर्थ दो यात्रिओंमें देना भी तो एक तरह की एडजस्टमेंट ही है। द्वितीय श्रेणी के अनारक्षित और आरक्षित टिकटों के किरायोंमे महज ₹15/- का आरक्षण शुल्क ही ज्यादा लगता है, मगर इस उपाय से अनारक्षित यात्रिओंकी संख्या पर बड़ी आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है।

बाकी अनारक्षित टिकटों पर गाड़ी क्रमांक अंकित करना क्या उक्त टिकट धारक को गाड़ी में आसन मिल जाने या उसकी रेल यात्रा सुगम होने की गारण्टी प्रदान कर पाएगा?

कई बार देखा गया है, अनारक्षित विशेष गाड़ियाँ उनके प्रचार, प्रसार एवं सूचना के अभाव में खाली ही चलती रहती है, जब की उसी मार्ग की नियमित गाड़ियोंमे पैर धरने की जगह नही रहती।

पहले सुपरफास्ट श्रेणी एवं मेल गाड़ियोंमे ‘डिस्टेन्स रिस्ट्रिक्शन’ नामक पाबन्दी चलाई जाती थी। किसी गाड़ी में 600 किलोमीटर तो किसी मे 200 किलोमीटर के टिकट की पाबन्दी होती थी। इससे कम अन्तर के यात्री इन गाड़ियोंमे यात्रा नही कर पाते थे। सुपरफास्ट गाड़ियोंके स्टोपेजेस भी कम होते थे, जिससे अपनेआप ही कम अन्तर के यात्री इन गाड़ियोंसे दूर रहते थे। अब हुवा यह है की सुपरफास्ट गाड़ियोंमे बेतहाशा स्टोपेजेस बढ़ गए है या बेशुमार स्टोपेजेस वाली गाड़ियोंको भी सुपरफास्ट की श्रेणी में लाया गया है।

रेल विभाग को अनारक्षित टिकटोंकी बिक्री पर, स्वयं अनारक्षित टिकटों के अस्तित्व पर गम्भीर विचार करना होगा। 500 किलोमीटर से ज्यादा दूरी के लिए चलनेवाली गाड़ियोंमे अनारक्षित टिकटोंकी बिक्री पर अनिवार्य रूप से बन्दी लगानी होगी। इन गाड़ियोंमे के द्वितीय श्रेणी कोच में केवल आरक्षित 2S वर्ग की ही बुकिंग की जानी चाहिए। इससे लम्बी दूरी की गाड़ियोंमे स्टोपेजेस भी कम किए जा सकते है और इनकी औसत गति भी बढ़ाई जा सकती है।

500 किलोमीटर तक परिचालित गाड़ियोंको इंटरसिटी एक्सप्रेस के प्रारूपमें, केवल सिटिंग वर्ग के कोच के साथ चलाया जा सकता है। 500 किलोमीटर की रेल यात्रा अमूमन 8-10 घंटो में पूर्ण हो सकती है। इसमे कुछ कोच आरक्षित 2S, CC वातानुकूलित चेयर कार, यात्रिओंके माँग पर जोड़े जा सकते है। हालाँकि रेल विभाग ने इस प्रणाली पर मेमू एक्सप्रेस, वन्देभारत सीरीज की गाड़ियाँ लाई है, मगर यह व्यवस्था पूर्ण रूप से, प्रत्येक मुख्य रेल मार्गपर, जहाँ यात्रिओंकी अच्छी मांग है, लागू नही हो पाई है। इसके चलते यात्रिओंमें भारी असमंजस की स्थिती है। एक तरफ उनकी सस्ते किरायोंवाली कई सवारी गाड़ियाँ, एक्सप्रेस गाड़ियोंमे बदल दी गई। दूसरी तरफ यात्रिओंकी संख्या के अनुपात में इंटरसिटी या मेमू गाड़ियाँ उपलब्ध नही रहने से कम अन्तर के यात्री भी अनारक्षित टिकट ले कर लम्बी दूरी की गाड़ियोंका रुख करते है।

एक और समस्या रेल व्यवस्था के गले अटकी पड़ी है। वह है, ग़ैरउपनगरिय रेल मार्गों के सीजन टिकट। उपनगरीय रेल मार्गोंपर तो लोकल, सबर्बन गाड़ियाँ रेल विभाग द्वारा चलाई जाती है मगर गैरउपनगरीय रेल मार्गोंपर उतनी साधारण गाड़ियाँ उपलब्ध नही होती और यह सीजन टिकट धारक, सीधे जो सामने उपलब्ध गाड़ी है, उसमे सवार होकर अपने गंतव्य पर निकल पड़ते है। इन यात्रिओंका दबाव न सिर्फ अनारक्षित कोचों बल्कि आरक्षित कोचों पर भी पड़ता है। इन ग़ैरउपनगरिय सीजन टिकट पर गाड़ी क्रमांक लिखा जाना चाहिए, चूँकि इस क्षेत्र में कम अन्तर, 150 किलोमीटर के लिए उपलब्ध गाड़ियाँ बहुत कम होती है और उनके क्रमांक सीजन टिकट पर अंकित किए जा सकते है। ऐसे में केवल अंकित गाड़ियों में ही सीजन टिकट धारक यात्रा कर पाएगा, अन्य गाड़ियाँ उसके लिए प्रतिबन्धित होगी। इससे यात्रिओंका यह गुट भी लम्बी दुरियोंकी गाड़ी से दूर किया जा सकता है।

साथ ही यह कह देना अन्यथा नही होगा की, सुपरफास्ट गाड़ियोंमे, सुपरफास्ट शुल्क लगाकर सीजन टिकट उपलब्ध कराना यह रेल विभाग का सुपरफास्ट गाड़ियोंके साथ किया गया एक भद्दा मज़ाक ही है। इसी तरह एक तरफ गाड़ी में अनारक्षित टिकटोंका बेशुमार आवंटन और बाद में उन्हें अमानवीय पद्धति से रोकना, हाँकना और नियंत्रित करना भी एक तरह से यात्रिओंके साथ खिलवाड़ ही है। यात्रिओंका हक होना चाहिए की वह टिकट खरीदते ही उसकी रेल यात्रा सुनिश्चित हो।

अन्ततः हम यह कहेंगे कि रेल प्रशासन की कौनसी ऐसी मजबूरी है, की जहाँ किसी भी परिवहन व्यवस्था में यात्री उसका मूल्य चुकाता है और यात्रा का लाभ लेता है और यहाँ रेलवे कहती है, की वह यात्री के कुल किराए में 43% किराया खुद चुका रही है और महज 57% किराया मूल्य में यात्रिवहन कर रही है? क्या लगभग आधा किराया वसूल कर यह जताया जा रहा है, की एड्जस्ट कर लीजिए, हम आपको रियायत में ले जा रहे है?

Leave a comment