6 सितम्बर 2023, बुधवार, भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, सप्तमी, विक्रम संवत 2080
ZBTT ज़ीरो बेस्ड टाइम टेबल अर्थात शून्याधारित समयसारणी इस तरह की संकल्पना भारतीय रेल ने 3-4 वर्ष पहले कार्यान्वित की थी। योजना मुम्बई आई आई टी के सहयोग से बनाई गई थी। ZBTT के तहत भारतीय रेल की प्रमुख संकल्पना यह थी, की सारी यात्री गाड़ियोंको शून्य कर एक एक गाड़ियोंको उनकी प्रमुखता, प्राधन्यता के मूल्य पर समयसारणी में रचा जाए।
इस शून्याधारित समयसारणी की आवश्यकता क्यों आन पड़ी थी, इसके लिए हमे और थोड़ा पीछे की ओर जाना पड़ेगा। हमारे देश मे रेल, ब्रिटिश राज की देन है। ब्रिटिशों ने देशभर से कच्चा माल, अयस्क, कृषि उत्पाद की यातायात करने और सेना की आवाजाही के लिए रेल बिछाने की पहल की थी। उद्देश्य सरल था, माल यातायात! और रेल लाइनोंकी सीधी संकल्पना थी, मेन लाइन और ब्रांच लाइन। मुख्य मार्ग की गाड़ियाँ लम्बी दूरी की सीधी चलने वाली गाड़ियाँ होती थी जो केवल जंक्शन स्टेशन, जिला मुख्यालय या छावनी स्टेशन्स पर रुकती थी। ब्रांच लाइन याने उप रेल मार्ग, जो दो अलग अलग मेन लाइन के जंक्शनों को जोड़नेवाली लाइन होती थी, और यहॉं की गाड़ियाँ उक्त जंक्शन स्टेशन के बीच चलती थी, जो अक्सर मेन लाइन्स अर्थात मुख्य मार्ग पर यात्रा नही करती थी। इस तरह के संकल्पना के साथ रेल परिचालन एक परिधी में चल रहा था। भारतीय रेल बनने के बाद याने स्वतंत्रता के बाद भी यही दौर चलता रहा।
देश की राजनीति भी एकल निर्धारण में ही चल रही थी अतः फेरफार, दखलंदाजी विशेषतः नही होती थी। फिर आया छोटे छोटे प्रान्त स्तर की पार्टियोंका दौर। 8, 10, 15 राजनीतिक पार्टियाँ मिलकर देश की बागडोर संभालने लगी। तुष्टिकरण का दौर चल निकला। जिस प्रदेश के रेल मन्त्री, उस प्रदेश को भर भरा कर यात्री गाड़ियाँ। और तो और, जो रेल गाड़ियोंकी मेन/ब्रांच लाइन की संकल्पना थी उसे दरकिनार कर दिया गया। यात्री गाड़ियाँ ब्रांच लाइन के स्टेशनोंसे निकल मेन लाइन पर आती, फिर किसी ब्रांच लाइन के स्टेशन पर जाकर खत्म होती। जंक्शन स्टेशनोंका कोई औचित्य ही नही रहा। इस तरह की यात्री गाड़ियाँ चलना बिल्कुल आम बात हो गयी। इससे मेन लाइन/ ब्रांच लाइन और उसकी गाड़ियाँ, उनकी प्राथमिकता यह सब का भी कोई महत्व न रहा।
वर्षों तक केवल एक रेल कोच फैक्ट्री इंटेग्रल कोच फैक्ट्री पेरंबूर चेन्नई में ही रेल यात्री कोच का उत्पादन होते रहा। वहीं लोको निर्मितीके लिए चित्तरंजन और बनारस यही कारखाने थे। वर्षोँसे बना उतना ही रेल नेटवर्क, उतनी ही रेल पटरियां, उतने ही रेल्वे स्टेशन, वही सिग्नल प्रणाली और उसी पर प्रत्येक रेल बजट में अलग अलग प्रांतोको संतुष्ट करने के लिए चलाई जानेवाली नई गाड़ियों फेहरिस्त, विस्तारो और स्टोपेजेसकी घोषणाएं, रैक और स्लॉट्स उपलब्ध नही है तो साप्ताहिक गाड़ियाँ चलवा दी जाती। ब्रांच से मेन और मेन से ब्रांच लाइनोंपर गाड़ियाँ कुदाई जा रही थी। नई गाड़ियाँ, सीमित स्लॉट्स में मालगाड़ियोंके यातायात पर अतिक्रमण कर चलाना मजबूरी हो गयी थी। जबकी सारे अर्थशास्त्री तक, यह बात भलीभाँति जानते थे, मालगाड़ियोंके बलबूते ही रेल यातायात खड़ी है, चल रही है।
इन सारी हेराफेरी और गाड़ियोंको स्लॉट्स में जबरन घुसाकर चलाने की वजह से न ही माल यातायात ढंग से चल रही थी, न ही प्रमुख गाड़ियोंका व्यवस्थित नियोजन हो पा रहा था और ना ही रेल अनुरक्षण के लिए स्थायी समय मिल रहा था। इधर रेल विभाग लगातार अपनी व्यवस्था, चल स्टॉक को मजबूत करने के लिए आक्रोशित था। कोच और लोको उत्पाद के लिए और इकाइयाँ शुरू करवाई गई। नए अत्याधुनिक तेज गति से चलने में सक्षम LHB कोच का उत्पादन देश मे शुरू हो गया। सिग्नल प्रणाली में आधुनिकता लाई गई। उधर ब्रांच लाइनों में यूनिगेज अर्थात छोटे मीटर गेज, नैरो गेज का रूपांतरण BG बड़ी लाइन में करने का कार्य शुरू किया गया। मगर इससे यात्री गाड़ियोंकी समयसारणी और भी ज्यादा तकलीफ़देह होती जा रही थी। इसका केवल अब एक ही उपाय था, यात्री गाड़ियोंकी समयसारणी की पुनर्रचना और यही है ZBTT या शून्याधारित समयसारणी कार्यक्रम।
अलग अलग क्षेत्रीय रेल्वेज़ को अपने क्षेत्र में रेल अनुरक्षण समय निर्धारित करने कहा गया। उन्हें, उस समय के स्लॉट्स के बीच में आने वाली गाड़ियाँ रद्द करने के लिए नामित करना था। गाड़ियोंकी औसत गति बढ़े इसके लिए छोटे स्टेशन के स्टोपेजेस रद्द किए जाने थे। उसके लिए प्रत्येक स्टोपेजेस के लिए रेल विभाग का अपेक्षित व्यय और उसके ऐवज में उक्त स्टेशन से मिलनेवाली आय इसके आँकड़े जांच कर उनपर स्टोपेजेस रद्द या जारी रखना, इस बात की मुहर लगनी थी। यह एक बहुत बड़ी और देशव्यापी कवायद होनेवाली थी। संक्रमण काल की आपत्ति को इस कवायद के लिए अवसर में बदला जा सकता था। सारी यात्री गाड़ियाँ लगभग 2 महीने बन्द थी और उसके बाद वर्ष भर तक भी गाड़ियोंके फेरे सीमित मात्रा में ही चल रहे थे।
मगर…
मगर हुवा वही जो नही होना चाहिए था। रेल विभाग के पास यह नियोजन तो था, की फलाँ गाड़ी बन्द करनी है, फलाँ स्टोपेजेस रद्द करने है, गाड़ियोंकी समयसारणी आमूलचूल बदलनी है, मगर उसके ऐवज में जो स्लॉट्स खाली हुए थे, उनको अस्थायी रूप से ही क्यों न हो, कुछ इंटरसिटी या कम दूरी की डेमू, मेमू गाड़ियाँ चलवा देते तो जो असंतोष स्थानीय यात्रिओंके मन मे पनपा वह न होता। कम दूरी के रोजाना जानाआना करनेवाले यात्री, इन स्टोपेजेस, गाड़ियाँ रद्दीकरण और नियमित मेल/एक्सप्रेस गाड़ियोंके अप्रत्याशित बदलाव पहले तो परेशान हुए और बाद में नाराज़।
इस नाराजगी की वजहें एकदम जायज़ थी। सवारी गाड़ियोंको रद्द करना, उसके बदले कुछ गाड़ियोंको डेमू/मेमू एक्सप्रेस में बदल कर अपर्याप्त संख्या में चलाना। रेल विभाग के पास पर्याप्त मात्रा में डेमू/मेमू रैक नही थे अतः आठ कार की ट्रेन सेट बनाकर हरेक क्षेत्रीय रेल विभाग को कुछ गाड़ियाँ दी गयी और उन्हें सवारी गाड़ियोंके ऐवज में चलवाया गया।सवारी गाड़ी के पुराने कोच की आसन क्षमता इन डेमू/ममुओंसे कहीं अधिक थी। नई आधुनिक, सुसज्जित डेमू/मेमू गाड़ियोंको देख यात्री जितने खुश हुए, उससे कहीं जल्द उनकी यह खुशी काफूर हो गयी और नाराजगी में बदल गयी।
रेल विभाग ZBTT को नियोजनबद्ध तरीके से लागू नहीं कर पा रहा था और इधर स्थानीय यात्रिओंकी विविध माँगोका दबाव, लोकप्रतिनिधियोंके जरिए रेल प्रशासन तक टकराने लगा। आखिर जो नियोजन था, उसमें फिसलन शुरू हुई। एक एक करके अमूमन सारे स्टोपेजेस लौटाए गए और अभी भी लौटाना जारी है।
हालाँकि, अभी यह एकदम से कहना, की ZBTT कार्यक्रम पूर्णतः असफल हो गया, या उसे अब बन्द कर दिया है, उचित नही होगा। यह बात है, की उचित ढंग समयसारणी की पुनर्रचना की गई, जैसा कुछ लग नही रहा है। रेल विभाग ने इस कार्यक्रम के अंतर्गत सवारी गाड़ियोंकी जगह मेमू ट्रेनसेट लाए। बहुत से रेल मार्ग पर LHB रैक वाली गाड़ियोंको 130 किलोमीटर प्रति घंटे से दौड़ाने की अनुमति प्रदान की। वन्देभारत जैसे ट्रेन सेट वाली प्रीमियम गाड़ियोंका अवतरण साध्य किया। गौरतलब यह है, सभी सीधी चलनेवाली गाड़ियोंमे बीच जंक्शन स्टेशन्स पर होनेवाली शंटिंग लगभग बन्द कर दी गयी है। रेल विद्युतीकरण के व्यापक कार्यक्रम के कारण लोको भी प्रारम्भिक स्टेशन से गन्तव्य स्टेशन तक बिना बदले चल रहे है। लेकिन शून्याधारित समयसारणी के मूल उद्देश्य, समयसारणी की पुनर्रचना से यह कार्यक्रम अब भी दूर ही है, सार्थक नही हो पाया है, ऐसा लगता है।
