18 मार्च 2023, शनिवार, चैत्र, कृष्ण पक्ष, एकादशी, विक्रम संवत 2079
कैसा जमाना आ गया है, चाहे कुछ हो जाये, किसी की जान ही क्यों न चली जाए, पर किसी की कोई दिक्कत नही!
भारतीय रेल ही देखिए। ढेर नियम है, कायदे है मगर उनके पालन करने का न थोड़े ही नियम है। कायदे कानून सब किताबों, रेल डिब्बों की दीवारों पर सटे पड़े है। कोई उनका उपयोग अपने आचरण में नही करता और किसी को कोई दिक्कत नही है।
दरअसल ‘किसी को कोई दिक्कत नही’ का अर्थ है, यात्रिओंको परेशानी है, शिकायत भी है। यात्रिओंके मन मे अस्वस्थता भी भरी पड़ी है। मगर तेरी भी चुप और मेरी भी चुप। कुछ तुम सम्भालो कुछ हम झेल लेते है।
भाई, रेल चल रही है बस!
जनरल डिब्बोंके टॉयलेट तक मे यात्री ठूंसे हुए है, किसी को दिक्कत नही है। सम्पूर्णतः आरक्षित शयनयान स्लीपर तो नाम का ही आरक्षित कोच रह गया है। कोच के आरक्षित यात्री बेहद परेशान होते है। 72/80 यात्री क्षमता के कोच में कमसे कम दुगुने यात्री लदे रहते है। टॉयलेट, बेसिन का उपयोग करना बामुश्किल है मगर दिक्कत? अ हं! बिल्कुल नही है। क्यों रहेगी? क्योंकी रेल प्रशासन भी यही चाहता है, की यात्रिओंसे गाड़ियाँ ठूंसी, भरी रहे।
जी, जिस तरह रेल प्रशासन अपने द्वितीय श्रेणी, ग़ैरवातानुकूल यात्री सुविधाओंकी की ओरसे बेहद लापरवाही बरत रहा है, इसमे कोई शक नही की साधारण डिब्बों के यात्री भीड़ के चलते दम घुट कर मरे या भीड़ भरी गाड़ियोंसे गिर पड़े। रेल्वे अपनी वर्षोंसे चली आ रही परम्परा में सुधार करने को तैयार ही नही।
द्वितीय श्रेणी जनरल में रेलवे की ओर से यात्री सुविधाओंकी देखभाल करने वाला कोई प्रतिनिधि नही होता अतः उसमे यात्रा करनेवाले यात्री तो रामभरोसे ही है। मगर स्लीपर क्लास एक आरक्षित कोच, श्रेणी है, जिसमे सम्पूर्ण यात्रा में, अनिवार्य रूप से चल टिकट निरीक्षक मौजूद रहता है, उसकी हालत भी साधारण कोच की तरह ही बदतर रहती है। नियम है, प्रतिक्षासूची के यात्री आरक्षित कोच में यात्रा नही कर सकते, अपितु उनके टिकट का PNR गाड़ी प्रस्थान समय के मात्र 30 मिनट बाद ही ड्रेन अर्थात रद्द हो जाता है। ऐसे में किस तरह यह यात्री स्लीपर कोचेस में यात्रा करते चले जाते है? महानुभाव टिकट जाँच दल के अधिकारी ऐसे यात्रिओंको जुर्माने की रसीदें काटकर बाकायदा स्लीपर कोच में चढ़वाते है। यह माज़रा आप पुणे, मुम्बई स्टेशनोंपर, गाड़ियोंके सामने प्लेटफॉर्म पर खुल्लमखुल्ला चलते हुए देख सकते है। जब सैय्या भये कोतवाल, तब डर काहे का? टिकट जाँच दल ही रसीदें काट कर अनाधिकृत यात्रिओंको आरक्षित कोचोंमे चढवाता है तो कौन यात्री शिकायत करें?
यह बात अनाधिकृत यात्रिओंके आरक्षित कोच में यात्रा की हुई। आगे रेल प्रशासन के पास समान्तर सुरक्षा दल की व्यवस्था है। RPF रेल सुरक्षा बल। तमाम मजबूत सुरक्षा के बावजूद रेल्वे प्लेटफार्म पर सारे अनाधिकृत विक्रेता अपने सड़े, गले, निकृष्टतम खाद्यान्न के साथ मनमाने मूल्य पर रेल यात्रिओंको सरे आम लूटते रहते है। मज़ाल है, की यात्री एक शब्द इनसे बोल दे, शिकायत कर दे, बेचारे की जान जोखिम में आ जाती है। रेल प्रशासन द्वारा कुछ ही ब्रांड्स की पानी बोतल बेचने के लिए अधिकृत की गई है, मगर रेलवे स्टेशनोंपर सरे आम लोकल पानी की बोतलें हजारों संख्या में लायी जाती है और बेची जाती है। एक दिन की खपत 5000 से 10000 पानी बोतल और प्रत्येक बोतल के पीछे 10 से 12 रुपये की मार्जिन। कुछ समझ रहें गुनागणित? 60 हजार से सव्वा लाख रुपये रोज। भला किसी को क्या दिक्कत हो सकती है?
रेल प्रशासन को सोचना चाहिए, उनके पास दल, बल सब है, मगर क्या वह वाकई यात्रिओंकी सुविधा के लिए है? टिकट जाँच दल अपने टारगेट अचीव कर अवॉर्ड्स लेने में जुटा है। सुरक्षा बल पता नही किन बन्दों की, सामान की सुरक्षा कर रहा है? अनाधिकृत माल और उसका विपणन करनेवाले लोग इतनी सुरक्षा के बावजूद आ ही कैसे सकते है, रेलवे आहाते में? मामूली 250 रुपयोंका जुर्माना देकर अनाधिकृत व्यक्ति साहूकार बन रेल में घूम सकता है यह केवल इन “अवार्डधारी” जाँच दल के बदौलत।
सचमुच रेल प्रशासन को आत्मपरीक्षण की सख्त जरूरत है, वरना किसी को कोई दिक्कत कभी रहेगी ही नही। अधिकृत यात्री किसी ओर विकल्पों की तरफ मुड़ जाएंगे और अनाधिकृत व्यवसाय, यात्री रेल के मेहमाननवाजी का लाभ बराबर लूटते रहेंगे।